दैनिक भास्कर का पटना संस्करण आने को है. पाठक इसे कितनी स्वीकार्यता देंगे यह तो इसकी गुणवत्ता पर निर्भर करेगा पर एक मामले में अखाबार क्रांतिकारी बदलाव का गवाह बनने वाला है.
खबर है कि भास्कर प्रबंधन अपने अखबार के सामाजिक स्वरूप को नये तरह से परिभाषित करने का हौसला दिखाने का जज्बा रखता है. मीडिया में अगड़े समाज के वर्चस्व की परम्परा के बरअक्स यह अखबार सामाजिक समुहों की उचित नुमाइंदगी दे कर, अन्य मीडिया घरानों को नयी चुनौती पेश करेगा.
अभी तक मीडिया समुहों पर ये आरोप लगते रहे हैं कि वहां पिछड़े, दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को नाम मात्र की भी भागीदारी नहीं मिलती. शोध आधारित पुस्तकों ने तो यह स्थापित कर दिया है कि समाचार माध्यमों में पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की भागीदारी नगण्य है.
पर सवाल यह है कि आखिर लीक से हट कर चलने का हौसला यह अखबार क्यों दिखाना चाहता है?
पिछले कुछ वर्षों से सामाजिक रूप से पिछड़े समुहों की अखबारों में नुमाइंदगी पर काफी बहस होने लगी है. इसके बावजूद अखबारों के सामाजिक बनावट में कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिला. हां इतना जरूर होता रहा है कि कुछ अखबार कुछ चेहरों को हाथी के दांत की तरह सामने लाते रहे हैं. लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि पत्रकारों के रूप में अगर सामाजिक समुहों की उचित नुमाइंदगी अभी तक देने को कोई तैयार नहीं है.
रणनीतिक दृष्टि
दर असल विभिन्न सामाजिक समुहों को उचित भागीदारी देने के पीछ कुछ लोग य.ह कुतर्क गढ़ देंगे कि पिछड़े समाज के लोगों में योग्य पत्रकार नहीं मिलते. यह बचकाना तर्क है.
दर असल इस काम को करने के लिए उदार मानसिकता और सहृदयता की जरूत है. सभी सम्पादक ऐसे नहीं होते. लेकिन पटना के दैनिक भास्कर संस्करण की बागडोर जिन लोगों के हाथ में आयी है उनकी उदारता और योग्यता पर शायद ही कोई सवाल उठाये. ऐसे लोग निणर्णायक पदों पर होंगे तो पत्रकारिता के स्वरूप में व्यापक बदलाव की उम्मीद की जा सकती है.
पाठको का बड़ा बाजार
पिछले दो तीन दशकों में जिस तरह से बिहार में अखबार पढ़ने वालों को डेमोग्राफिक और सामाजिक वर्ग में बदलाव आया है उस दृष्टि से भी पत्रकारों के नये समुहों का आना अखबार के हित में है.
दर असल अखबार में पत्रकार की दृष्टि ही खबरों की लाइन और लेंथ तय करती है. ऐसे में दैनिक भास्कर ने अगर पत्रकारों के सामाजिक बैकग्राउंड को ध्यान में रखने का फैसला किया है तो यह एक दूरदर्शी फैसला है. इससे निश्चित रूप से इस अखबार को खुद ब खुद पाठकों के बड़े और इंक्लुसिव वर्ग तक पहुंच बनाने में मदद मिलेगी.
“मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे” पुस्तक के लेखक और ऑल इंडिया रेडियो के समाचार सम्पादक संजय कुमार इस संबंध में कहते हैं- “मीडिया में जो दरवाजे दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों के लिए बंद हैं वे खुल जायेगें और भास्कर की यह पहल अन्य अखबार समूहों पर भी असर छोडे़ जायेगा. मैं समझता हूं कि सिर्फ अखबार में दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों को नौकरी ही नहीं बल्कि उनके सरोकारों को भी जगह दी जानी चाहिये. और यह तब होगा जब अखबार में दलित-पिछड़-अल्पसंख्यक की भागीदारी सुनिश्चित होगी. यकीनन भास्कर की यह पहल एतिहासिक होगी क्यों कि दलित-पिछड-अल्पसंख्यक में प्रतिभा की कमी नहीं है बस मौका देने की जरूरत है”.
अब सवाल है कि सामाजिक रूप से हाशिए के लोग पत्रकारिता में आयेंगे तो उसका कैसा असर होगा?
बड़ा बदलाव
इस सवाल के जवाब में संजय कहते हैं- “व्यापक असर होगा. अभी आप देखें कि अखबारों को जाति विशेष से जाना जाता है. ऐसे में सामाजिक रूप से हाशिए के लोग पत्रकारिता में आयेंगे तो उनकी बातें सामने आयगी. अक्सर भारतीय मीडिया पर आरोप लगता रहा है कि सामाजिक न्याय से जुड़ी चीजों को तरजीह नहीं दी जाती है. आरक्षण का सवाल हो या दलितों पर उत्पीड़न का मीडिया में जो तस्वीर आनी चाहिये वह नहीं आ पाती है. ऐसे में यह पहल एक क्रांति का आगाज करती दिखेगी.”