बिहार विधान सभा चुनाव की रणभेरी बज गयी है। विधान सभा चुनाव में पार्टी नहीं, पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं। दोनों तरफ गठबंधन चुनावी समर में तैनात हैं। अभी दोनों में चार-चार दलों का गठबंधन है। भाजपा के एनडीए में भाजपा, लोजपा, रालोसपा और हम शामिल हैं तो लालू यादव के साथ राजद, जदयू, कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन है। गठबंधन में दलों की कतार अभी और लंबी हो सकती है।
वीरेंद्र यादव, बिहार ब्यूरो प्रमुख
(तस्वीर ओबरा के पास खरांटी में बनाया गया शहीद जगतपति कुमार का स्मारक है। वे सचिवालय पर झंडा फहराते समय शहीद हुए थे।)
चुनावी सरगर्मी के बीच जमीनी यर्थाथ का जाजया लेने हम अपने विधान सभा क्षेत्र ओबरा (औरंगाबाद) दो दिनों के लिए गए थे। कई दलों के नेताओं से मुलाकात हुई। इनमें से कई खुद को उम्मीदवार बता रहे थे तो कुछ खुद को राजनीतिक विश्लेषक। ओबरा का राजनीतिक चरित्र समाजवादी रहा है। यहां के प्रथम विधायक पदारथ सिंह यादव सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर 1952 में चुने गये थे। 15 विधान सभा चुनाव में अब तक करीब दस बार यादव ही चुने जाते रहे हैं। यहां यादव की एकतरफा वोटिंग किसी भी यादव उम्मीदवार को जितवाने के लिए पर्याप्त है।
बिना दल के दावेदार
आगामी चुनाव की चर्चा शुरू होते ही उम्मीदवारों की बात शुरू हो जाती है। दोनों गठबंधनों की आठ पार्टियों के अपने-अपने दावेदार हैं। हर पार्टी में औसतन 3 से 5 उम्मीदवार । इसके अलावा भी कई निर्दलीय तैयारी कर रहे हैं। हर विधान सभा क्षेत्र की यही त्रासदी है कि गठबंधन विशेष में किस दल के कोटे में जाएगी सीट। ओबरा भी इसका अपवाद नहीं है। पिछली बार यहां से एक निर्दलीय यादव उम्मीदवार जीते थे। इसलिए किसी पार्टी की स्वाभाविक दावेदारी नहीं दिख रही है। एनडीए की तीनों पार्टियां अपना दावा व तर्क गिना रही हैं तो यही हाल लालू गठबंधन का है। यहां कांग्रेस मौन दिख रही है, लेकिन राजद व जदयू में दावेदारी का दौर जारी है।
संशय ही संशय
अब तक राजनीति में जनता के मौन के अर्थ गढ़े जाते थे। इस बार पार्टियों के मौन के अर्थ ढूढ़े जा रहे हैं। सीट के नाम को लेकर पार्टियां चुप्पी नहीं तोड़ रही हैं। विभिन्न दलों में टिकट के दावेदार भी ‘खुली जुबान और बंद मुट्ठी’ की रणनीति के तहत काम कर रहे हैं। चौक-चौराहों पर टिकट का दावा कर रहे हैं, बड़े नेताओं से भरोसा का दावा कर रहे हैं। लेकिन टिकट किस पार्टी के खाते में जाएगी, इसका दावा कोई नहीं कर रहा है। जनता के सामने चुनाव है। परिवर्तन के नारे लगाए जा रहे हैं। विकास गाथा पढ़ी जा रही है। वोटरों को ‘ खुली आंखों’ में सपने दिखाए जा रहे है, लेकिन दल और उम्मीदवार के नाम पर ‘राजनीति अंधी’ हो गयी है। जनता को यह नहीं बताया जा रहा है कि किस पार्टी और उम्मीदवार के नाम पर वोट देना है। चुनाव, पार्टी और उम्मीदवार की अंधी यात्रा का सबेरा देर-सबेर हो जाएगा, लेकिन तब तक चौक-चौराहों की राजनीतिक चर्चा ‘रंतौधी’ की शिकार ही रहेगी।