विषय पर आने के पूर्व दो छोटे-छोटे घटनाक्रम। 2009 के आसपास की बात है। लोकसभा चुनाव का परिणाम आने वाला था। औरंगाबाद में कांग्रेस के उम्मीदवार निखिल कुमार और जदयू के उम्मीदवार सुशील सिंह थे। दोनों राजपूत। मतगणना लगभग पूरी हो गयी थी और परिणाम घोषित होने वाला था। औरंगाबाद के गणमान्य राजपूत चमचमाता जूता, झकास धोती-कुर्ता और हाथ में माला लेकर तैयार थे। गाड़ी और ड्राइवर को भी तैयार रखा था। लेकिन घर में सांस थाम कर बैठे थे। सब को परिणाम का इंतजार था। परिणाम सुशील सिंह के पक्ष में आया और सभी बाबू साहब सुशील सिंह के ‘सिंह कोठी’ की ओर दौड़ पड़े।

 वीरेंद्र यादव


और एक घटना आज की। पटना के मौर्या होटल में महागठबंधन के घटक दलों के सीट बंटवारे की घोषणा होनी थी। गेट के बाहर औरंगाबाद से आये कुछ लोग निखिल कुमार के टिकट कटने से नाराज थे और विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। हमने विरोध कर रहे एक व्यक्ति से पूछा- आप किस जाति के हैं। उन्होंने बताया- राजपूत। इसके बाद हमने पूछा- अब तो निखिल बाबू को टिकट नहीं मिल रहा है, तो अब बाबू साहब लोग भाजपा को ही वोट देंगे न। वे थोड़ा सकपकाये। फिर हमने वही सवाल किया- तो अब बाबू साहब लोग भाजपा को ही वोट देंगे न। इसके बाद उन्होंने कहा- और विकल्प क्या है। भाजपा को ही वोट देंगे।
अब विषय पर वापस लौटते हैं। औरंगाबाद संसदीय सीट पर अब तक एक ही जाति का कब्जा रहा है। राजपूत जाति के खिलाफ दूसरी प्रमुख जातियों में भी राजपूत उम्मीदवार होते रहे हैं। इसलिए अब तक इस सीट पर राजपूतों का कब्जा रहा। परिसीमन के बाद पहली बार राजपूत के खिलाफ प्रमुख पार्टियों ने गैरराजपूतों को टिकट देना शुरू किया, लेकिन 2009 और 2014 में वोटों के बिखराव का लाभ सुशील सिंह को मिला।
इस बार लालू यादव ने महागठबंधन की ओर से दांगी जाति के उपेंद्र प्रसाद को टिकट दिया है। परिसीमन के बाद दांगी और कोईरी वोटरों की संख्या बढ़ गयी। इस नये समीकरण में औरंगाबाद में राजपूतों की आबादी कम हुई है। वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र यादव की पुस्तक ‘राजनीति की जाति’ के प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, औरंगाबाद संसदीय क्षेत्र में राजपूत वोटरों की संख्या 11­.61 प्रतिशत, यादव वोटरों की संख्या 15.41 प्रतिशत, मुसलमान वोटरों की संख्या 10.77 प्रतिशत, कोईरी (दांगी) वोटरों की संख्या 6.32 प्रतिशत, भूमिहार वोटरों की संख्या 3.66 प्रतिशत, ब्राह्मण वोटरों की संख्या 2.28, रविदास वोटरों की संख्या 6.62 और पासवान वोटरों की संख्या 8.63 प्रतिशत है। वीरेंद्र यादव की पुस्तक में प्रमुख जातियों की लोकसभावार वोटरों की संख्या प्रकाशित है। इस पुस्तक को 3500 रुपये भुगतान कर लेखक से खरीदा जा सकता है।

दांगी और कोईरी को हाल तक एक ही जाति माना जाता था और गणना भी उसी रूप में होती थी। नीतीश कुमार ने ‘वोट बढ़ाओ’ अभियान के तहत कोईरी और दांगी को अलग-अलग कर दिया। दांगी को अतिपिछड़ा और कोईरी को पिछड़ा की श्रेणी में बांट दिया। यह विभाजन अब राजनीतिक स्तर पर भी दिखने लगा है।

औरंगाबाद की सामाजिक पृष्ठभूमि में ‘चितौड़गढ़’ की अवधारणा व्यापक रूप से मौजूद है। पहली बार भाजपा के राजपूत सुशील सिंह और हम के दांगी उपेंद्र प्रसाद के बीच सीधा मुकाबला है। राजपूतों के खिलाफ गैरसवर्ण चि‍तौड़गढ़ ‘ध्वस्त‘ करने के लिए एकजुट हो गये तो लड़ाई महागठबंधन के पक्ष में हो सकती है। पार्टी की लड़ाई जातीय भावना में तब्दील हो गयी तो मुकाबला रोचक हो सकता है और दोनों खेमों को नयी रणनीति बनानी और बदलनी पड़ सकती है।

By Editor


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