पटना पुस्तक मेला जातिवाद का मुखौटा ओढ़े बौद्धिक मठाधीशी का केन्द्र बना रहा. 12 नबम्बर से शुरू हुआ मेला 24 नवम्बर को समाप्त हो गया।
संजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार
विवाद, फणीश्वरनाथ रेणु और राजेन्द्र यादव के नाम और तस्वीरों को लेकर उठा। यह सवाल पुस्तक मेले की आड़ में जातिवाद के मुखौटे को लेकर था। पुस्तक मेले की परिपाटी रही है कि प्रवेश द्वार और प्रशासनिक भवन पर चर्चित साहित्यकारों को समर्पित किया जातारहा है। इस बार आयोजक ने साहित्यकारों के नाम के बदले उनकी रचना को तवज्जो दी।
प्रवेश द्वार पर फणीश्वरनाथ रेणु की चर्चित रचना ‘‘मैला आंचल’’ और प्रशासनिक भवन पर चर्चित साहित्यकार राजेन्द्र यादव की रचना ‘‘सारा आकाश’’लिखा।
वहीं जहाँनाटक होता है और कृतिलता मंच, जहाँ कविता पाठ होती है उसका नाम जी.पी.देशपांडे रंगभूमि रखा गया. एक ओर नाम की जगह रचना तो दूसरी ओर रचना की जगह नाम।
बौद्धिक लोग इसे पचा नहीं पाये और पचना भी नहीं चाहिये। क्योंकि एक ओर नाम नहीं देना और दूसरी ओर नाम देना, आयोजक के बौद्धिक सोच को नंगा करता है। सवाल खड़ा हो गया कि कहीं इसके पीछे, राजेन्द्र यादव का ‘‘यादव’’ होना तो नहीं और फणीश्वरनाथ रेणु का ‘‘पिछड़ा’’ होना।
जाति….जाती नहीं यह एक बड़ा सवाल है। पटना पुस्तक मेला में जनसंवाद में ‘‘जाति न पूछो साधो की’’ में जम कर शब्दों के बाण चले। इसी में पत्रकार फिरोज मंसूरी नेप्रशासनिक भवन पर चर्चित साहित्यकार राजेन्द्र यादव के नाम के बिना उनके उपन्यास सारा आकाश को लेकर सवाल उठाया। यह सवाल सोशल मीडिया पर जैसे ही फिरोज मंसूरी ने पोस्ट किया। बहस शुरू हो गयी। पटना पुस्तक मेला हर बार की तरह इस बार भी जातिवाद का मुखौटा ओढ़े बौद्धिक मठाधीशी के केन्द्र बनने के सवाल को सोशलमीडिया पर वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकारों- राजनेताओं में निखिल आनंद, अरूण कुमार, संजीव चंदन, मुसाफिर बैठा, पुष्पराज,उपेन्द्र कुशवाहा, अनुप्रिया पटेल सहित कई ने विरोध दर्ज कराते हुए सवाल का जवाब मांगा। लेकिन आयोजक के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।