यह कहानी 74 आंदोलन के उस समर्पित नेता सुरेश भट्ट की बेटियों की है जो आंदोलन के दौरान सड़कों पर निकलते थे तो उस समय लालू प्रसाद सरीखे नेता यह नारा लगाते थे कि ‘अगल-बगल हट्ट, आ रहे सुरेश भट्ट.
विनायक विजेता
मूल रुप से नवादा के रहने वाले सुरेश भट्ट ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान अपनी लगभग सारी संपति कुर्बान कर दी। उन्होंने न तो कभी अपने लिए और ही न अपने परिवार के लिए कुछ अर्जित किया। संपत्ति के नाम पर नवादा में एक विजय सिनेमा हॉल ही रहा जिसपर उनके सौतेले भाई ने कब्जा कर रखा है। दिल्ली के एक ओल्ड एज होम में पांच वर्षों तक गुमनामी की जिंदगी जीने वाले सुरेश भट्ट की कभी भी उनके किसी समाजवादी चेलों ने सुध नहीं ली। दिल्ली में ही उनका नवम्बर 2012 में देहांत हो गया।
सुरेश भट्ट जैसे कांतिवीर के परिवार की दारून दशा मन को व्यथित कर देने वाली है। सुरेश भट्ट की तीन पुत्रियों में सबसे बड़ी पुत्री असीमा भट्ट उर्फ क्रांति भट्ट कभी पटना में एक दैनिक अखबार में कार्यरत थीं. उसी समय उनका परिचय प्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा से हुआ। फिर दोनों ने शादी कर ली. लेकिन दोनों के संबंध बाद में बिगड़ गये.
असीमा भट्ट बीते कई वर्षों से मुंबई में रहते हुए अभिनय क्षेत्र में कार्यरत हैं। असीमा ने आलोक धन्वा से अपने बने और बिगड़े संबंध और कारणों को लेकर एक लंबी आत्मकथा भी लिखी थी जो तीन वर्ष पूर्व ‘कथादेश’ नामक चर्चित साहित्यिक पत्रिका में छपी थी और कई लोगों इसे अपने ब्लॉग में भी लिया था।
सुरेश भट्ट की दुसरी पुत्री प्रतिभा भट्ट शादी सहरसा में हुई उनकी एक पुत्री भी है पर उनके पति ने भी एक तरह से उनका परित्याग कर रखा है।
ऐसी ही हालत सुरेश भट्ट की तीसरी और सबसे छोटी पुत्री प्रगति भट्ट का है। मधेपुरा के आलम नगर में ब्याहता प्रगति भी बीते कई वर्षों से अपने मायके में रहने को बाध्य हैं। जबकि सुरेश भट्ट का इकलौता बेटा प्रकाश बेरोजगार है। अपने सौतेले देवर द्वारा कब्जा कर रखे गए विजय सिनेमा हॉल में बने केबिन के कमरे में अपनी दो पुत्रियों और एक बेटे के साथ वर्षों से रहकर गुजारा कर रहीं सरस्वती भट्ट जिनकी माली हालत भी काफी खराब है के दिल पर क्या गुजरती होगी इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।