बिहार के तेजतर्रार आइपीएस अधिकारी विकास वैभव ने भीम बांध से जुड़ी शानदार स्मृतियों को फेसबुक पर शेयर किया है. इसमें उन्होंने भीम बांध की स्मृतियां एवं वर्तमान की चर्चा की है. विकास वैभव एनआईए में भी अपनी सेवा दे चुके हैं और वर्तमान में वे भागलपुर-मुंगेर रेंज के डीआइजी हैं.
नौकरशाही डेस्क
विकास वैभव की पहचान एक आइपीएस अधिकारी के अलावा राष्ट्र के पौराणिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों को लेकर शोध करने वाले एक विद्यार्थी की भी रही है. तो आईये पढ़ते उनकी ही जुबानी….
भीम बांध की स्मृतियां एवं वर्तमान. मुंगेर प्रवास के दौरान भीमबांध जाने की इच्छा बहुत दिनों से मन में लिए था परंतु अत्यधिक कार्यव्यस्तताओं के मध्य समय नहीं निकाल पा रहा था . वैसे तो भीमबांध जाने का मुख्य कारण वन क्षेत्रों में सुरक्षा बलो द्वारा चलाए जा रहे उग्रवाद उन्मूलन अभियान की वर्तमान स्थिति एवं वनवासियों के लिए चल रहे विकास कार्यों की समीक्षा थी, परंतु जैसे ही वहाँ पहुँचकर भ्रमणशील हुआ वैसे ही यात्री मन भी पुनः पूर्व स्मृतियों में डूबने सा लगा .
पिछले 25 वर्षों में भीमबांध की यह मेरी तृतीय यात्रा थी . आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व 17 जनवरी, 1993 को सर्वप्रथम यहाँ जाने का अवसर मिला था जब वनभोज (पिकनिक) के उद्देश्य से यात्रा कर रहे बरौनी रिफाइनरी टाऊनशिप के पारिवारिक पर्यटक समूह में सम्मिलित था . बरौनी से लगभग 4 घंटों की यात्रा के उपरांत भीमबांध पहुंचकर एवं यहाँ के प्राकृतिक उष्मीय जल प्रपातों (गर्म पानी के झरनों ) को देखकर उस समय बालक मन में अत्यंत कौतूहल उत्पन्न हुआ था और मुझे स्पष्ट स्मरण है कि साथ गए अधिकांश बालक जब खेलने में व्यस्त थे तब मैं झरनों के उद्गम स्थल एवं रहस्यों के प्रति उत्सुक हो साथ आए वयस्कों से पूछ पूछकर जानकारी ले रहा था . इसी क्रम में तब पिताजी ने गर्म झरनों के कारण रूप में भूगर्भीय गंधक (सल्फर) के मौजूदगी की बात बताई थी जिसने मुझे इतना विस्मृत किया था कि मैं स्वयं उद्गम स्थल को निकट से देखना चाहता था . इसी कौतूहल में तब आसपास पैदल भ्रमण कर मैंने उद्गम स्थल को ढूंढ भी निकाला था और निकटवर्ती पर्वतीय वाच टाॅवर पर मान नदी को उद्गम स्थल से बहते देखते हुए अन्य वन्यजीवों को देखने की लालसा में बहुत समय व्यतीत किया था . तदोपरांत समूह में लौटकर जनवरी के उस ठंडे दिन में गर्मकुंड में आनंदपूर्वक स्नान किया था और फिर अत्यंत स्वादिष्ट भोजन ग्रहण कर मधुर स्मृतियां लिए वापस बरौनी के लिए प्रस्थान कर गया था . प्रस्थान के क्रम में निकासी वन्यमार्गों पर तब हिरणों के झुंडों तथा वनमुर्गियों से अंधेरा होने के तुरंत पूर्व साक्षात्कार हुआ था जो सुखद अनुभूति रूप में आज भी अविस्मरणीय है .
भीमबांध की मधुर स्मृतियां समेटे जब 1993 में विदा हुआ था तब अगली यात्रा कब होगी यह अनुमान नहीं था हालांकि यह विश्वास एवं कामना अवश्य थी कि शीघ्र पुनः आगमन होगा . परंतु कालांतर में भीमबांध की परिस्थितियों में अत्यंत दुखद परिवर्तनों की सूचनाएं सुनने को मिलती रहीं जिनकी साक्षात अनुभूति मुझे पुलिस सेवा में अपने क्षेत्रीय प्रायोगिक प्रशिक्षण के प्रथम कार्यदिवस से ही हो गई . भीमबांध की द्वितीय यात्रा इतनी हृदयविदारक होगी, यह 5 जनवरी, 2005 के पूर्व मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी . दरसल 4 जनवरी, 2005 की देर रात्रि को मैं पहली बार भागलपुर जिले में पुलिस प्रशिक्षण ग्रहण करने हेतु पहुंचा था और पुलिस अधीक्षक के निवास पर ही रूका था . अगले दिन सभी वरीय पदाधिकारियों से मिलने जुलने में व्यस्त रहा था और संध्या में जब तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के साथ चाय पी रहा था, तभी एक फोन ने पूरे शांत माहौल को अचानक परिवर्तित कर दिया था . पुलिस अधीक्षक, भागलपुर अपनी कुर्सी से लगभग उछलते उठे और हतप्रभ स्थिति में ही उन्होंने मुझे मुंगेर के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक की उग्रवादी हमले में शहीद होने की दुखद सूचना दी . फिर उनके तथा तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक एवं उप-महानिरीक्षक के साथ लगभग 9 बजे हम मुंगेर पुलिस केन्द्र पहुंचे थे जहाँ दिवंगत अधिकारी के मृत शरीर को लाया गया था . पूरी रात पुलिस केन्द्र में ही बीती थी और सुबह होते ही शहीद की अंतिम सलामी के पश्चात हम लगभग 11 बजे भीमबांध के निकट स्थित घटनास्थल देखने पहुंचे थे . पुलिस सेवा के प्रारंभिक क्षणों में इस हृदयविदारक घटना ने मुझे तब अंदर से तीव्र रूप से झकझोरा था तथा विचलित किया था और भीमबांध की पूर्व मधुर स्मृतियों को परिवर्तित करते हुए दुखद बना दिया था .
13 वर्षों के पश्चात जब आज भीमबांध जा रहा था तब पूर्व स्मृतियां मन में उमङ रही थीं . भीमबांध में सर्वप्रथम पुलिस शिविर पहुंचकर वर्तमान स्थिति के समीक्षोपरांत जब निकट स्थित उष्मीय कुंडों एवं मान नदी के उद्गम स्थल को देखने निकला तब समय के साथ हुए परिवर्तन से साक्षात्कार हुआ . 1993 में भव्य रहे विश्राम भवन एवं वाचटाॅवर समयांतर में उग्रवादियों द्वारा नष्ट किए जा चुके थे . पर्यटकों से भरे रहने वाले कुंडों को वीरान देख मुझे 21 मार्च, 1811 में यहां आए फ्रांसिस बुकानन के वर्णनों की याद आ गई जिन्होंने आज से 200 वर्ष पूर्व भीमबांध के झरनों को पूरे भारतवर्ष में सर्वश्रेष्ठ बताया था . नष्ट भवनों के भग्नावशेषों के भ्रमण के समय ऐसा लगा मानो बिहार में प्राकृतिक सौंदर्य के अनेकों अनुपम उदाहरण समेटे भीमबांध का यह वन क्षेत्र अपनी वेदना बताना चाह रहा था . भीमबांध की वेदना सुनकर मन बुकानन के स्मृतियों की वर्तमान स्थिति को देखने हेतु शरीर को स्वतः पर्वतारोहण के लिए प्रेरित करने लगा और तब कुंडों से लगभग 500 फीट की ऊंचाई पर चढ़कर मोदागिरि के पर्वतों के विहंगम दृष्य के अवलोकन का सौभाग्य मिला . जब पर्वतों को देख रहा था तब पर्यटन की असीम संभावनाएं लिए भीमबांध मानो पुनः आशान्वित करने लगा चूंकि प्राकृतिक सौंदर्य में बहुत कमी नहीं आई थी और मानवजनित विध्वंस दृढ निश्चय से परिवर्तित की जा सकती थी . पर्वत की चोटी पर पुराने मंदिर के दर्शन भी हुए जिसका उल्लेख बुकानन ने नहीं किया था . सर्वशक्तिमान से भीमबांध के उत्कर्ष की प्रार्थना कर तब नदी के उद्गम स्थल की ओर गया जहाँ प्रस्तर शिलाओं से निकलते जल को अभी भी गर्मी के कारण स्पर्श करना कठिन है . भीमबांध के प्राकृतिक सौंदर्य में आज भी कमी नहीं आई है हालांकि प्लास्टिक के प्रकोप से यह भी अछूता नहीं रहा है .
उग्रवादियों की विध्वंसक गतिविधियों के कारण बहुत समय से अशांत भीमबांध वर्तमान समय में शांत है और परिवर्तन की आशा देख रहा है . निकटवर्ती ग्रामों में विद्युत प्रवाह अब घरों को प्रकाशित करने लगी है तथा सङकों की स्थिति में भी अप्रत्याशित सुधार हुआ है जिससे धीरे-धीरे पर्यटकों को भी बिहार के इस प्राकृतिक धरोहर ने पुनः आकर्षित करना प्रारंभ कर दिया है . आज आवश्यकता भय के माहौल को सामुदायिक पुलिसिंग के माध्यम से समाप्त करने की तथा प्राकृतिक पर्यटक स्थल के रूप में पुनः पूर्ण रूप से विकसित करने की है . भीमबांध से जब मुंगेर लौट रहा था तब दूर पर्वतों के बीच आशाओं की किरणें समेटे सूर्य अस्त हो रहा था और प्रकृति एक नए दिवस के स्वागत की तैयारी में लीन हो चुकी थी . मन में आशाएँ लिए जब मुंगेर वापस पहुंचा तब अनुभूतियों को आपके साथ साझा करने की इच्छा जागृत हुई, जिसे कुछ चित्रों के माध्यम से यहाँ करने का प्रयास कर रहा हूँ .