उच्च तकनीकी शिक्षा में हम आगे बढ़ें तो हैं, पिछले कुछ सालों में हजारों तकनीकी संस्थान भी खुले हैं पर अधिकतर कमाऊ मशीन बन गये हैं हाल यह है कि इन कालेजों की आधी सीटें खाली रह जा रही हैं.
शशांक द्विवेदी
जनसत्ता 30 दिसंबर, 2013 : पिछले दिनों केंद्र सरकार ने सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए भी तकनीकी और इंजीनियरिंग संस्थान खोलने की मंजूरी दे दी। अब तक कॉलेज को खोलने के लिए सोसाइटी या ट्रस्ट का गठन जरूरी था। केंद्र सरकार की इस नई पहल के तहत तकनीकी, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए कॉलेज शुरू करने वाली कंपनियों को कंपनी अधिनियम-1956 की धारा-25 के तहत पंजीकृत होना जरूरी है। वर्तमान समय में जब देश में उच्च और तकनीकी शिक्षा की हालत खराब है, केंद्र सरकार का इस तरह का कदम उठाना समझ से परे है। उच्च और तकनीकी शिक्षा के इस सत्र में भी देश के सभी राज्यों में बड़े पैमाने पर सीटें खाली रह गई हैं।
अधिकतर राज्यों में पचास से साठ प्रतिशत तक सीटें खाली हैं। इतनी विकट स्थिति यों ही नहीं बन गई। पिछले तीन साल से लगातार दाखिले का ग्राफ नीचे जा रहा था, लेकिन सरकार ने इतने संवेदनशील मुद्दे पर कोई ध्यान नहीं दिया। ताज्जुब की बात यह है कि एक तरफ देश में पांच लाख सीटें खाली हैं, दूसरी तरफ केंद्र सरकार कॉरपोरेट सेक्टर को और भी ज्यादा इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने के लिए आमंत्रित कर रही है। जबकि पिछले दस सालों में देश में गुणवत्ता को ताक पर रख कर हजारों इंजीनियरिंग कॉलेज खोले गए। कॉलेज खोलना एक कमाऊ उपक्रम मान लिया गया। अधिकतर निजी तकनीकी शिक्षा संस्थान बड़े व्यापारिक घरानों, नेताओं और ठेकेदारों के व्यापार का हिस्सा बन गए। उनकी प्राथमिकता में गुणवत्ता और छात्रों के प्रति जवाबदेही रही नहीं। इसी से इंजीनियरिंग के क्षेत्र में रुझान बहुत नकारात्मक हुआ और हालात बहुत खराब हो गए। जबकि देश में आर्थिक प्रगति का रास्ता उच्च और तकनीकी शिक्षा से होकर ही जाता है। सिर्फ कुछ आइआइटी और एनआइटी के बूते यह देश तरक्की नहीं कर सकता। क्योंकि देश में पंचानबे प्रतिशत तकनीकी शिक्षा निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों और संस्थानों के हाथ में है, सीधी-सी बात है अगर इनकी हालत खराब होगी तो इसका सीधा असर देश की आर्थिक प्रगति पर भी पड़ेगा।
नारायणमूर्ति समिति
उच्च और तकनीकी शिक्षा में सुधार के लिए इन्फोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति की अध्यक्षता में बनी समिति की राय है कि इस क्षेत्र में विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया जाए, साथ में उच्च शिक्षा में निवेश बढ़ाने के लिए संस्थानों को कम कीमत पर 99 साल का पट्टा और टैक्स में छूट दी जाए। इस रिपोर्ट को अगर ध्यान से देखें तो यह पूरी तरह कॉरपोरेट जगत के फायदे की ही फिक्र करती दिखती है। पर क्या पूंजी के घरानों से शैक्षिक गुणवत्ता की उम्मीद की जा सकती है, मुनाफा कमाना ही जिनका एकमात्र सिद्धांत और मूल मंत्र होता है। हम बार-बार विदेशी निवेश को आमंत्रित करने या देश में विदेशी विश्वविद्यालय खोलने की बात करते है, लेकिन उच्च और तकनीकी शिक्षा की मौजूदा दशा-दिशा को ठीक करने के लिए कुछ नहीं करते। सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे नीति नियंताओं को मौजूदा हालत क्यों नहीं नजर आती?
नारायणमूर्ति समिति से उम्मीद थी कि वह उच्च तकनीकी शिक्षा की जमीनी हकीकत को देखते हुए अपनी सिफारिशें देगी, लेकिन इस समिति ने सिर्फ निवेश आमंत्रित करने वाले उपायों और कॉरपोरेट को होने वाले फायदे पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया है। समिति की सिफारिश के मुताबिक अगर सरकार किसी संस्थान को 99 साल के लिए पट्टा दे दे और उसे टैक्स में छूट भी दी जाए तो क्या गारंटी है कि वह संस्थान गुणवत्ता आधारित शिक्षा ही देगा? अगर वह संस्थान गुणवत्ता के बजाय सिर्फ मुनाफा कमाने पर जोर देगा तो हम क्या करेंगे? इसका कोई जिक्र रिपोर्ट में नहीं है।
समिति के अनुसार, दुनिया के नामी विश्वविद्यालय भारत आएंगे और गुणवत्तायुक्त शिक्षा मुहैया कराएंगे। मगर रसायन विज्ञान के लिए 2009 में नोबेल पुरस्कार से विभूषित किए गए भारतीय मूल के वैज्ञानिक वेंकटेश रामाकृष्णन का कहना है कि ब्रिटेन और अमेरिका के जिन प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ने सिंगापुर या दूसरी जगहों पर अपना परिसर खोला है, वहां वैसी गुणवत्ता आधारित शिक्षा नहीं मिलती जैसी वे अपने मूल परिसर में मुहैया कराते हैं। बेहतर होता कि कॉरपोरेट निवेश को आमंत्रित करने के अंधानुकरण के२ बजाय गुणवत्ता बनाए रखने पर ध्यान दिया जाता। विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं स्थापित करने की अनुमति देकर भारतीय उच्च शिक्षा को विदेशी प्रतिस्पर्धा के लिए खोलने से कुछ उसी तरह का असर हो सकता है जैसा कि 1991 के उदारीकरण के बाद हमारी अर्थव्यवस्था में देखने को मिला। देश में विश्व के दूसरे दर्जे के संस्थानों का प्रवेश हो सकता है और वह भी मात्र ऐसे क्षेत्रों में जहां भारी कमाई की गुंजाइश होगी; वे अग्रणी राष्ट्रीय संस्थानों से अच्छे प्राध्यापकों को अपने संस्थान में ले जा सकते हैं और इससे गुणवत्ता या मात्रा (सीट) पर शायद ही कोई असर पड़े। सैम पित्रोदा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने यह स्वीकार किया कि भारत में उच्च शिक्षा में जो संकट है वह गहराई तक मौजूद है।
कॉरपोरेट घराने
उच्च शिक्षा में कॉरपोरेट क्षेत्र की भागीदारी पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने विश्वविद्यालयों की मदद बंद करने और उनकी फीस बढ़ानेकी वकालत कर उच्च शिक्षा महंगी होने की जमीन तैयार कर दी है। ताज्जुब की बात है कि योजना आयोग देश में उच्च शिक्षा की जमीनी हकीकत जानते हुए भी इस तरह के निर्णय क्यों ले रहा है, जिससे सिर्फ शिक्षा के ठेकेदारों और कंपनियों को फायदा हो।
पिछले साल मानव संसाधन विकास मंत्री ने टंडन समिति को डीम्ड विश्वविद्यालयों की जांच का जिम्मा सौंपा था, उनमें से चौवालीस पर जो सवाल उठे वे ज्यों के त्यों हैं। यह सिद्ध होने के बावजूद कि वे शिक्षा की दुकानों में बदल गए हैं और उन्हें पारिवारिक व्यापार की तरह चलाया जा रहा है, कुछ नहीं किया गया। लेकिन अब तक सवालों के घेरे में आए विश्वविद्यालयों पर आखिरी फैसला नहीं हो पाया है और शिक्षाविदों की राय में उनका व्यापार जारी है।
भारत में उच्चशिक्षा की स्थिति पर नजर डालें तो शिखर पर कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालय, आइआइटी, आइआइएम, एम्स, एनआइटी जैसी सौ संस्थाएं हैं, जिनमें मुश्किल से एक लाख विद्यार्थी पढ़ते हैं। दूसरी तरफ देश में 538 विश्वविद्यालय और 26,478 उच्चशिक्षा संस्थान हैं जिनमें 1.60 करोड़ नौजवान भीड़ की तरह पढ़ने-लिखने की सिर्फ कवायद करते हैं। कुल पंजीकरण के लिहाज से यह बारह प्रतिशत है जो वैश्विक औसत से काफी कम है। जबकि केंद्र सरकार ने 2020 तक उच्चशिक्षा में दाखिला तीस प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा है। देश में संस्थानों की भीड़ बढ़ाने के लिए पिछले तीन दशक में बहुत सारे निजी संस्थान और डीम्ड विश्वविद्यालय भी खुले हैं, जिनका अपना कोई मानक और स्तर नहीं है।
कई बड़े उद्योगपति उच्च और तकनीकी शिक्षा में बेहतर लाभ की उम्मीद के साथ निवेश कर रहे हैं। फिलहाल इस क्षेत्र में निवेश सीमित है, पर मुनाफे के आसार काफी अच्छे दिख रहे हैं। यही वजह है कि कारोबारी इसमें दिलचस्पी ले रहे हैं। देश में उच्च शिक्षा क्षेत्र में सालाना कारोबार लगभग एक लाख करोड़ रुपए का है और उम्मीद है कि अगले तीन से पांच साल में इसमें तीन गुना बढ़ोतरी हो सकती है। हर कंपनी इस बात का ध्यान रख रही है कि मन-मुताबिक कर्मचारी चाहिए, तो दूसरे संस्थानों पर निर्भर नहीं रहा जा कॉरपोरेट सेक्टर मुनाफे की संभावना के साथ उच्च शिक्षा क्षेत्र में अपनी भागीदारी बढ़ा रहा है। उनका उच्च शिक्षा के मौजूदा ढांचे को ठीक करने या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की कोई कार्ययोजना नहीं है।
इंजीनियरिंग के दाखिलों में साल-दर-साल जो गिरावट आ रही है उसके पीछे मुख्य कारण यह है कि तकनीकी शिक्षा के इतने विस्तार के बाद भी आज हम उसे व्यावहारिक और रोजगारपरक नहीं बना पाए हैं। कोई भी अभिभावक इंजीनियरिंग में अपने बच्चे का दाखिला सिर्फ इसलिए कराता है कि उसको डिग्री के बाद नौकरी मिले। देश में प्रचलित इस धारणा को समझना होगा कि इंजीनियर बनने के लिए कोई इंजीनियरिंग नहीं पढ़ता बल्कि नौकरी पाने के लिए पढ़ता है। नौकरी की गारंटी पर ही इंजीनियरिंग की तरफ रुझान था, लेकिन आज स्थिति एकदम बदल गई है, बेरोजगार इंजीनियरिंग स्नातकों की पूरी फौज खड़ी हो चुकी है। लोगों में यह आम धारणा हो गई कि जब बेरोजगार ही रहना है तो ज्यादा पैसे खर्च कर इंजीनियरिंग क्यों करें, कुछ और करें। अधिकतर इंजीनियरिंग कॉलेजों में डिग्री के बाद प्लेसमेंट और नौकरी की गारंटी न होना मोहभंग होने का प्रमुख कारण है।
जनसत्ता से साभार