Talibanतालिबान फोर्स

कतर में तालिबान-अमेरिका के बीच 6 दिनों तक चली लंबी वार्ता के बाद समझौते के मसौदे पर सहमति हो गई है।बीते कुछ दिनों से यह खबर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सभी मीडिया में छाई हुई है। इस समझौते के अनुसार, विदेशी सैनिकों को अफ़ग़ानिस्तान से निकलना होगा, अल-क़ायदा या दाइश जैसे संगठनों को, तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में अड्डा बनाने की अनुमति नहीं देंगे, दोनों पक्षों के बीच क़ैदियों की अदला-बदली होगी।

इमामुद्दीन अलीग

अमेरिका और तालिबान दोनों ने मसौदे में शामिल इन बिंदुओं की पुष्टि की है। मसौदे में यह भी शामिल है कि तालिबान को ब्लैक लिस्ट से हटा दिया जाएगा, जिससे उन पर लगा यात्रा प्रतिबंध भी खत्म हो जाएगा। इस ताज़ा घटनाक्रम को अंतिम समझौते का आकार लेने में भले ही अभी समय लगे, लेकिन इसके प्रभाव अभी से दिखाई देने लगे हैं। भले ही तालिबान को ब्लैक लिस्ट से हटाने की बात अभी केवल मसौदे का हिस्सा हो, लेकिन कुछ अपवाद को छोड़ कर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने तालिबान को आतंकवादी, चरमपंथी, कट्टरपंथी लिखना अभी से छोड़ दिया।
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जहां अधिकतर हालिया रिपोर्टों में तालिबानके साथ किसी भी तरह का टैग नहीं लगाया गया है, तो वहीँ कुछ चैनलों और अखबारों ने तालिबान को आतंकवादी के बजाए विद्रोही, मिलिटेंट या लड़ाका लिखना/बोलना शुर कर दिया है।
अमेरिकी मीडिया को तो छोड़ दें, उनके द्वारा फैलाए गए नैरेटिव को बदलना अब उनकी और उनके सरकार की मजबूरी है, भारतीय मीडिया ने भी ताज़ा घटनाक्रम से जुडी सभी रिपोर्टों में तालिबान से आतंकवाद की उपाधि वापस ले ली है! इस खबर को रिपोर्ट करते हुए बीबीसी हिंदी, न्यूज़-18 और दी हिन्दू ने तालिबान के साथ कोई विश्लेषक शब्द प्रयोग नहीं किया है। वहीँ टाइम्स ऑफ़ इंडिया, टाइम्स नाऊ, एन.बी.टी, ज़ी न्यूज़, अमर उजाला और वन इंडिया पोर्टल ने तालिबान को आतंकवादी कहने के बजाए “विद्रोही”, “मिलिटेंट”, “लड़ाका” जैसे शब्दों से संबोधित किया है।

थूका हुआ चाट रहा मीडिया

चौंकाने वाली बात यह है दैनिक जागरण ने भी इस खबर को लिखते हुए कहीं भी आतंकवादी शब्द का प्रयोग नहीं किया। यह अलग बात है तालिबान और अफगानिस्तान से जुडी अन्य ख़बरों में दैनिक जागरण समेत अन्य समाचार पत्रों और पोर्टलों ने एक-आध बार आतंकवादी शब्द का प्रयोग ज़रूर किया है लेकिन यह पहले की तुलना में बहुत ही कम है जब तालिबान को हर वाक्य में आतंकवादी, कट्टरपंथी, खूंखार और न जाने किन किन शब्दों से नवाजा जाता था। तालिबान के हवाले से मीडिया के रवैये में स्पष्ट बदलाव नज़र आ रहा है। यह पश्चिमी मीडिया की अंधी पैरवी और पूर्वाग्रह का ही नतीजा है कि आज भारतीय मीडिया को थूका हुआ चाटना पड़ रहा है।
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 हाल ही में, भारतीय सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत ने भी एक बयान में तालिबान के साथ बातचीत करने के लिए सरकार पर जोर दिया था।इन बयानों से ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार तालिबान और अफगानिस्तान से संबंधित अपनी विदेश नीति तय करने में असमंजस का शिकार है। सरकार न तो तालिबान से खुल कर बातचीत करने का फैसला कर रही है, और न ही पहले की तरह दहशतगर्द घोषित करते हुए तालिबान को सिरे से खारिज कर रही है। एक तरह से देखा जाए तो भारत सरकार तालिबान से संबंधित अपनी पूर्व नीति से एक क़दम पीछे हटी है लेकिन नई नीति पर खुल कर आगे बढ़ने से डर रही है।
एक बात तो स्पष्ट है कि अफगानिस्तान के अन्य पड़ोसी देशों की तरह भारत भी तालिबान के साथ बातचीत करने या यूं कहें कि तालिबान को स्वीकार करने के लिए मजबूर है। और मास्को वार्ता में भाग लेकर भारत ने अपनी इच्छा भी स्पष्ट कर दी है, लेकिन चूंकि लोकसभा चुनाव करीब है इसलिए, सत्तारूढ़ दल को लगता है कि तालिबान के साथ सीधी वार्ता करने से आम चुनाव में बड़ा नुक़्सान हो सकता है। क्योंकि ऐसा होने पर विपक्ष निश्चित रूप से इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश करेगा। ऐसे में तालिबान को लेकर जवाब दे पाना और जनता को संतुष्ट कर पाना भाजपा के लिए बहुत मुश्किल होगा।

भारत का हित

बीते एक दशक में भारत ने अफगानिस्तान में काफी निवेश किया है। ऐसे में भले ही, तालिबान के साथ भारत के संबंध कभी ठीक नहीं रहे हों, लेकिन देश के दीर्धकालीन हितों की रक्षा के लिए तालिबान से तुरंत और सीधी बातचीत शुरू करना वक़्त का तकाजा है। वार्ता में जितनी देरी होगी, अफगानिस्तान में भारत के हितों को उतना ही नुकसान पहुंचेगा। क्योंकि समय बीतने के साथ-साथ तालिबान की स्थिति अधिक मजबूत होगी, और उसी के साथ, इस देरी और सुस्ती के कारण अफगानिस्तान से भी भारत का पत्ता साफ हो जाएगा।

By Editor


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