आजादी की लड़ाई में सामाजिक सम्मान और हिस्सेदारी के लिए संघर्ष करने वालों में बाबा गाडगे (देबूजी झीनगारजी जनोरकर ) महत्वपूर्ण नाम है। उनके संघर्षों का काफी दूरगामी परिणाम सामने आया और एक बार उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को भी अनुत्तरति कर दिया था।
राजेंद्र प्रसाद
बाबासाहेब डा0 आंबेडकर ने कांग्रेस के दो दलों का उल्लेख किया है।एक नरम दल और दूसरा गरम दल। नरम दल समाज सुधार का पक्षधर था, जबकि गरम दल समाज सुधार के विरोध में था। गरम दल चाहता था कि पहले आजादी मिलनी चाहिए, सुधार का काम बाद की चीज है। गरम दल के नेता रूढि़वादी ब्राह्मण थे, जो अपनी धार्मिक परम्पराओं और समाज व्यवस्था को यथावत रखना चाहते थे। इसी गरम दल में महाराष्ट्र के नेता थे बाल गंगाधर तिलक, जो लोकमान्य के नाम से भी प्रसिद्ध थे। ये वही लोकमान्य थे, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नारा दिया था कि “स्वतन्त्रता प्राप्त करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” यह नारा इतना लोकप्रिय हुआ था कि पूरे देश में स्वतन्त्रता का आदर्श वाक्य बन गया था और कांग्रेस का ऐसा कोई भी जलसा नहीं था, जिसमें लोग यह नारा न लगाते हों। लेकिन स्वतन्त्रता की दृष्टि से ही इसकी सबसे तीखी आलोचना बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने की थी। उन्होंने कहा था कि कांग्रेस को स्वतन्त्रता की बात करने का क्या अधिकार है, जब वे अपने ही देश में करोड़ों भारतीयों को अछूत बनाकर मनुष्यता के सारे अधिकारों से वंचित किये हुए हैं? उन्होंने कहा कि ‘‘अगर तिलक अछूतों में पैदा हुए होते तो वे यह नहीं कहते कि स्वतन्त्रता प्राप्त करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, बल्कि तब उनका नारा यह होता कि ‘अछूतपन का खात्मा करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।”
आगे डॉअंबेडकर ने ब्राह्मण वर्चस्ववाले बुद्धिजीवी वर्ग के बारे में कहा – ‘‘ये लोग सबकी तरफ से बात करते हैं लेकिन पक्ष अपनी जाति का ही लेते हैं । कुछ बुद्धिवादी ब्राह्मण भी होते हैं किन्तु वे अस्पृश्यता की भयानकता को मात्र दार्शनिक शब्दावली में स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि अस्पृश्यता से समाज को बड़ा खतरा है । अस्पृश्यों की आंखों में धूल झोंकने के लिए तिलक सिर्फ मुंहदेखी सहानुभूति दिखाते थे । ‘ दलितों के प्रश्न पर सहानुभूतिरहित दृष्टि अपनाने के लिए अंबेडकर ने तिलक की कटु आलोचना की थी । यही लोकमान्य तिलक दलित-पिछड़ी जातियों की स्वतन्त्रता और उनको बराबर के अधिकार दिये जाने के इस कदर खिलाफ थे कि उन्होंने उनकी राजनीतिक भागीदारी के विरुद्ध बहुत ही प्रतिगामी वक्तव्य अपनी पत्रिका ‘ केसरी ’ में प्रकाशित किया था। विधि मंडलों में जाने और राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी के प्रश्न पर उन्होंने ‘केसरी’में प्रकाशित किया था कि “तेली, तम्बोली, कुनबी आदि जातियां विधि मंडल में जाकर क्या करेंगी? क्या वे वहां भी हल चलायेंगी ? क्या वे वहां तेल बेचेंगे ? इनका वहां क्या काम है ? वहां पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी ब्राह्मणों को जाना चाहिए।’’ इसके अलावा भी वे इस तरह के विचार विभिन्न जगहों पर सभा आयोजित करके सवर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने के लिये व्यक्त करते रहते थे। पर बाबासाहब डॉअम्बेडकर के वक्तव्यों से तिलक को कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था। तिलक जगह-जगह लोक लुभावन बातों से दलितों के समर्थन की भी उम्मीद पाले रहते थे।
उसी क्रम में तिलक के अनुयायियों ने सन् 1918 में पंढ़रपुर (जिला शोलापुर) में एक बड़ी सभा का आयोजन किया, जिसमें संयोग से श्रोता के रूप में गाडगे बाबा भी उपस्थित थे। भीड़ में भी गाडगे बाबा अपनी विशिष्ट पोशाक के कारण पहचान लिये गये। उन पर लोकमान्य तिलक की दृष्टि पड़ी और उन्होंने आग्रह पूर्वक गाडगे बाबा को मंच पर आमंत्रित किया। गाडगे बाबा संकोच के साथ मंच पर गये। तिलक ने उनसे सभा को सम्बोधित करने का आग्रह किया। गाडगे बाबा ने सभा से मुखातिब होते हुए अन्य बातों के अलावा यह कहा कि “तिलक महाशय, मैं परीट, धोबी, पीढ़ी दर पीढ़ी आपके कपड़े धोना मेरा काम है। मैं आपको क्या उपदेश दे सकता हूँ, क्या मार्ग दर्शन दे सकता हूँ? लेकिन मैं आपसे प्रार्थना करना चाहता हूँ कि इस देश के तेली, तम्बोली, कुनबी और अछूत विधि मंडलों और शासन-प्रशासन में जाना चाहते हैं, आप उन्हें जाने में मदद करें।
आप कहते हैं कि इनका वहां क्या काम? यह तो ब्राह्मणों का काम है। मैं कहता हूँ यह देश हम सबका है, हम सभी को वहां जाना चाहिए। आप कहते हैं केवल ब्राह्मणों को जाना चाहिए तो महाशय मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि आप हम सब गैर ब्राह्मणों को ब्राह्मण बना दो। हमें तेली-तम्बोली, कुनबी, धोबी, महार, चमार, नहीं रहने दो, हम सबों को ब्राह्मण बना दो। हम विधि मंडल में जाना चाहते हैं। पढ़ना-लिखना चाहते हैं। देश की तरक्की में योगदान देना चाहते हैं। आप हमारे लिए वह सब करने में मदद करो इसके लिए सम्पूर्ण गैर ब्राह्मण समाज आपका ऋणी रहेगा। गाडगे बाबा के उद्बोधन से वहां उपस्थित जन समुदाय में हर्ष का माहौल पैदा हो गया, तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उनका स्वागत किया गया। तिलक महाशय के चेहरे से मुस्कान गायब हो गयी। क्योंकि तिलक तो गाडगे बाबा से समर्थन की उम्मीद लगाये बैठे थे। पर हुआ ठीक इसके उल्टा।
गाडगे बाबा ने तिलक महाशय को करारा जवाब दिया। गाडगे बाबा ने तिलक के सिद्धांत की चूलें (नींव) हिला कर रख दीं। एक तरफ अनपढ़ गाडगे बाबा की यह प्रगतिशील सोच थी तो दूसरी तरफ अपने को सर्व गुण सम्पन्न कहलाने वाले तिलक महाशय अपनी ब्राह्मणवादी सोच के साथ स्वतन्त्रता चाहते थे। दोनों की सोच का मूल्यांकन करने पर यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि गाडगे बाबा की सोच का स्तर तिलक की सोच से कई गुणा अच्छा था। तिलक की सोच दकियानूसी थी, जबकि गाडगे बाबा की सोच आधुनिकता और प्रगतिशीलता से ओत-प्रोत। गाडगे बाबा की हाजिर जवाबी और सोच ऐसी थी।
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लेखक राजेंद्र प्रसाद पेशे से इंजीनियर हैं । वह सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर लगातार लिखते रहे हैं। वह अंबेदकर सेवा संस्थान जैसे कई महत्वपूर्ण संगठनों के माध्यम से समाज की गतिविधियों एवं बदलावों पर भी नजर रखते हैं। सामाजिक सरोकारों पर उनके सैक्ड़ों आलेख विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।