एडवोकेट काशिफ यूनुस अपने अनुभवों को साझा करते हुए बता रहे हैं कि निचली अदालतें मुकदमों पर कुंडली मार कर बैठी रहती हैं इस कारण कैसे लोग फैसले के लिए अपने जीवन के बरस दर बरस बिता देते हैं.
बहूत कम लोगों को ही पता है के अर्नेश कुमार बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार जैसे मुक़दमों का फैसला करते वक़्त सुप्रीम कोर्ट ने ग़लत फैसला लेने पर सी. जे. एम. साहब पर भी मुक़दमा करने का प्रावधान लाया हुआ है।
अब ये समझिए के हमारे सी. जी. एम. साहब लोग करते क्या हैं। ये मान के चला जाता है के पुलिस ने जो रिपोर्ट दिया है वो सही है। बहुत सारे मुक़दमों में तो पूरी डायरी पढ़ने की तकलीफ भी नहीं उठाई जाती है। फाइनल रिपोर्ट के 3-4 पन्नो को पढ़कर ही मुक़दमा शुरू कर दिया जाता है. अगर आप अमीर हैं और आपके पॉकेट में 10-20 हज़ार रूपया है तो हाई कोर्ट जाकर सी. जे. एम. साहब के फैसले को चैलेंज करिये और अगर आप ग़रीब आदमी हैं तो सी. जे. एम. साहब ने कोई ग़रीब लोगों को इन्साफ देने का ठेका ले रखा है क्या ? हो गया आप पर मुक़दमा क़ायम। अब लड़िये बरसों। 5-10साल के बाद ये मान लिया जायेगा के आप बेकुसूर थे।
जुडिशियल माइंड
अक्सर सी. जे. एम. साहब के फैसले को ग़लत क़रार देते हुए उच्च न्यायालय जुडिशियल माइंड नहीं अप्लाई करने की बात कहता है। अब सवाल ये पैदा होता है के अगर हमारे सी. जी. एम. साहब लोग जुडिशियल माइंड नहीं अप्लाई कर रहे हैं तो उन्हें इसके लिए कौन मजबूर करेगा। और हाई कोर्ट के किसी सुपरवाइसिंग जज ने आज तक किसी सी. जी. एम. साहब को इसके लिए बर्खास्त क्यों नहीं किया ? एक अनुमान के मुताबिक़ 25 प्रतिशत लोग ही सी. जी. एम. के फैसले को लेकर ऊपरी अदालत में जा पाते हैं। बाक़ी के 75 प्रतिशत लोग बरसों मुक़दमा झेलने पैर मजबूर हैं.
हमारी न्यायिक व्यवस्था में एक तरफ जहाँ बहुत सारी बौद्धिक कमियां हैं वहीँ दूसरी तरफ हर स्तर पर व्यवहारिक कमियां भरी पड़ी हैं। क़ुछ तो हमारे मजिस्ट्रेट्स में गुणवत्ता की कमी है तो ज़्यादातर मजिस्ट्रेट आलस का शिकार हैं और इस आलस की वजह है पटना हाई कोर्ट के चाबुक का कमज़ोर होना या न के बराबर होना। और इन सबकी सजा भुगत रहे हैं आम लोग.