वरिष्ठ पत्रकार कुमार अनिल ने इस विचारोत्तेजक लेख में, पेरिस हमलों के बहाने वैसे हिंदू-मुस्लिम लोकतंत्रवादियों को दबोच लिया है जो आतंकवाद की परिभाषा सुविधनुसार बदल कर गिरगिट का रूप धारण कर लेते हैं.
पेरिस में पत्रकारों पर हमले की निंदा करनेवालों में ऐसे लोग भी हैं, जो हमलावर की जाति, रंग और धर्म देख कर अपना लोकतांत्रिक होना तय करते हैं उनके इस व्यवहार से कोई एलियन ही खुश होगा कि पृथ्वीवासी अब लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता का महत्व समझ गए हैं।
मेरा मुस्लिम दोस्त
हमले की खबर टीवी में चलने के तुरंत बाद मैंने अपने एक मुस्लिम दोस्त को जानकारी दी और एक अमेरिकी न्यूज वेबसाइट पर खबर दिखाई, तो उनकी पहली प्रतिक्रया थी कि उन कार्टूनिस्टों को ऐसा चित्र ही नहीं बनाना चाहिए था। उन्होंने हत्या की निंदा नहीं की थी और आप कह सकते हैं कि उन्होंने अप्रत्यक्ष ढंग से हमले का समर्थन ही किया।
मेरा हिंदू दोस्त
कुछ मिनटों बाद मैंने अपने एक हिंदू दोस्त को यह खबर दिखाई , तो वे उबल पड़े। हमले की उपमाओं के साथ निंदा की। मैंने कहा कि तो क्या आप बाबरी मस्जिद को गिराए जाने की भी निंदा करेंगे, तो उनका जवाब था, वह मस्जिद नहीं थी, ढांचा था। मैंने फिर कहा कि किसी की फालतू दीवार ही हो, तो क्या आप गिरा देंगे? विवाद है, तो नगर निगम में शिकायत क्यों नहीं? कोर्ट पर भरोसा क्यों नहीं? आप खुद कहीं न्यायप्रणाली को नहीं मानते, वहां आपका कानून हाथ में लेना सही है, तो आप पेरिस के आतंकियों के कानून हाथ में लेने की आलोचना कैसे करते हैं?
आप कानून को न मानें, तो वह ठीक, दूसरा न माने तो गलत? यह कैसा लोकतांत्रिक होना है? आतंक पेरिस में भी गलत है और वह बाबरी मस्जिद गिराते समय भी गलत था।
कुछ तीसरे तरह के मित्र हैं, जो पेरिस हमले की निंदा करते हैं और साथ ही अपने हिंदू समाज से नाराजगी भी जताते हैं। वे कहते हैं कि सबसे कमजोर हिंदू ही है, कभी कोई गणेश जी को चड्डी में पेंट कर देता है, तो कोई किसी देवी का अश्लील चित्र बना देता है। फिर वे ऐसा चित्र बनाने वालों के खिलाफ वैसी ही उग्र भाषा का प्रयोग करते हैं, जैसी कोई आतंकवाद की पैरवी करने वाला करता है।
सोचता हूं कि आज अगर कबीर होते, तो उनके साथ क्या सुलूक होता?
मैं निराश नहीं हूं और इंडिया टुडे के पिछले अंक में पेशावर में मारे गए बच्चों के लिए उस नमाज के औचित्य पर सवाल उठाया है, जिसमें मरनेवाले के पापों को माफ कर देने की खुदा से गुजारिश की जाती है जिसमें मरनेवाले के पापों को माफ कर देने की खुदा से गुजारिश की जाती है और लाखों-करोड़ों वे लोग भी आशा जगाते हैं, जो बिना भेदभाव किए किसी भी लोकतंत्र विरोधी, न्याय और समानता विरोधी कार्रवाइयों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, जिनमें हिंदू भी हैं, मुसलमान भी हैं और ईसाई भी।
कुमार अनिल दैनिक भास्कर पटना में पत्रकार हैं. उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है
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