पिता मुलायम को अध्यक्ष के आसन से बेदखल कर एक तरह से नजरबंद कर देना.चाचा शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष पद से धकिया के हटा देना, संगठन के बदले विधायकों की भीड़ को फौज समझ बैठना, इसके अलाव कुछ अन्य कारणों ने अखिलेश को डुबो दिया.
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
आइए देखें की विकास और विकास के प्रचार के बावजूद क्यों डूब गयी अखिलेश की नैया.
एक
मुलायम परिवार में उठे विद्रोह को कुछ लोग नाटक कहते रहे. हालांकि शायद यह नाटक नहीं था, लेकिन अपने पिता के दो दशक के संघर्ष से तैयार की गयी जमीन को अपनी जागीर समझने की भूल अखिलेश ने की थी. नतीजा यह हुआ कि समाजवादी पार्टी को साइकिल से गांव-गांव तक पसारने वाले मुलायम और संगठन क्षमता के धनी शिवपाल को भी अखिलेश ने समर्पण करने को मजबूर कर देने मात्र को अपनी जीत समझ लिया था. घर में लगी आग भले ही बुझ गयी सी दिखती थी, लेकिन सच्चाई यही थी कि उस आग का धुंआ कभी मद्धम नहीं पड़ा था. यह कोई मामूली बात नहीं थी कि मतदान की तैयारियों के ही क्रम में चाचा शिवपाल ने नयी पार्टी बना डालने की घोषणा कर दी थी. तारीख भी जो घोषित की थी वह काफी दिलचस्प यानी 11 मार्च के बाद की तारीख रखी थी. चुनाव संगठन से जीते जाते हैं, जैसा कि यूपी में भाजपा ने करके दिखाया. पर यह मुगालता अखिलेश ने पाल लिया. नतीज यह हुआ कि अखिलेश को यूपी गंवाना पड़ा. और अब परिवार भी वह गंवायेंगे, यह तय सा है.
दो
अपने शासनकाल में मुजफ्फरनग जैसे दर्दनाक दंगे-फसाद को कंट्रोल नहीं करना और यह सोच लेना कि मुसलमान साथ रहेंगे, यह अखिलेश की भारी भूल साबित हुई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत पूरे राज्य में मुसलमानों का भरोसा अखिलेश के प्रति नहीं जाग पाया.
तीन
क्रप्शन, अपराध और कानून व्यस्था को अपने चश्मे से देखने और उसे ही सत्य मान लेने की अखिलेश का फैसला उनकी हार में बड़ा फैक्टर की साबित हुए. अपने मंत्री प्रजापति को जो रेप के केस के आरोपी थे. उन्हें टिकट दे देना, चुनाव लड़वाना और उनके नाम वारंट होने के बावजूद उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाना, यह मुद्दा भी यूपी की जनता ने खूब समझा. मुख्तार अंसारी के अपराध को अपराध समझ लेना, और अपने दल के दीगर नेताओं के अपराध से आंखें मूंद लेना भले ही अखिलेश के लिए मायने न रखते हों लेकिन यूपी की जनता ने उनके इस रवैये को देखा-परखा और फैसला कर दिया.
चार
कांगेस से गठबंधन करने के पीछे अखिलेश के दो तर्क थे- मुस्लिम वोटो के ध्रुवीकरण को रोकना और अगड़ी जातियों के वोट को अपनी तरफ लाना. पर अखिलेश भूल गये कि उन्होंने कांग्रेस को जो सीटें दीं थी उस पर सपा के प्रत्याशियों को नारजगी हुई थी. उस नाराजगी को अखिलेश खत्म करने में कामयाब नहीं हो सके और उसका प्रभाव चुनाव नतीजों पर दिखा.