लालू, शरद, नीतीश और मुलायम सरीखे नेताओं ने भाजपा के खिलाफ महामोर्चा बनाने की घोषणा कर दी है. मोदी को चुनौती पेश करने के लिए उनके पास कौन से मुद्दे हो सकते हैं और वे कितने सफल हो सकते हैं?
इर्शादुल हक, सम्पादक, नौकरशाही डॉट इन
लोकतांत्रिक राजनीति में आप या तो किसी के पक्ष में हो सकते हैं या विरोध में. तीसरा कोई विकल्प नहीं. इस तरह राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के बस दो ही रास्ते हैं- या तो आप अपने पक्ष में बहुमत जुटायें या फिर विरोधियों के बहुमत को कमजोर करने के लिए अपने बिखराव को रोकें. भाजापा के तूफानी विस्तार के खिलाफ क्षेत्रीय पार्टियां अपने बिखराव को रोकने की राह पर निकल पड़ी हैं. आज देश का मतदाता या तो भाजपा के साथ है या भाजपा के खिलाफ. जो मतदाता भाजपा के खिलाफ हैं उन्हें एकजुट करने का प्रयास है जनताद दल परिवार का एकीकरण या महामोर्चा का प्रस्तावित गठन.
गिरके उठने का जोखिम
चूंकि लोकतांत्रिक राजनीति में न कोई जीत अंतिम होती है और न कोई हार.सतत चलने वाला राजनीति का यही खेल राजनेतआओं में भविष्य की उम्मीद जगाये रहता है, वरना लालू, मुलायम, शरद, देवेगौड़ा सरीखे नेता गिर कर संभलने का जोखिम नहीं उठा पाते. पर सवाल यह है कि 1989 का जनता परिवार क्या भाजपा के लगातार विस्तार पाते भगवा रथ को रोक पायेगा?
यह बड़ा कठिन और पेचीदा प्रश्न है, क्योंकि मोदी के राजनीतिक तूफान ने कई राजनीतिक धराओं को दरका के रख दिया है. बएक वक्त मोदी साम्प्रदायिक राजनीति के प्रतीक रहे हैं तो दूसरे ही पल उन्होंने सामाजिक न्याय की स्थापित परिभाषा को भी ध्वस्त करके रख दिया है. उपेंद्र कुशवाहा, रामविलास पासवान और रामकृपाल का भाजपा या एनडीए से जुड़ना इसी रणनीति का हिस्सा है. इतना ही नहीं ‘एक भारत सशक्त भारत’ के भाजपा के नये नारे ने सेक्युलरिज्म आधरित राजनीति की धार को भी कुंद कर दिया है. ऐसे में जनता परिवार के एकीकरण की जो तीन में से दो बुनियादें- सामाजिक न्याय और सेक्युलरिज्म हैं, वे फिलहाल बेजान सी हो गयी हैं.
नाउम्मीदी कुफ्र है
रही बात भ्रष्टाचार के विरुद्ध संखनाद की, जो 1989 में जनता परिवर के लिये संजीवनी जैसा था, आज यह परिवार खुद ही भ्रष्टाचार के सागर में डूबा पड़ा है, जैसे चारा घोटाला. इन तीन महत्पूर्ण मुद्दों के अलावा मौजूदा प्रस्तावित जनता परिवार के खिलाफ चौथी परिस्तिथ भी है जो 1989 में कतई नहीं थी.1989 की लड़ाई किला फतह करने की लड़ाई थी लेकिन मौजूदा लड़ाई किला बचाने की लड़ाई है, 2015 में बिहार का और 2017 में उत्तर प्रदेश का. किला बचाना और किला फतह करना दोनों दो बातें हैं. किला फतह करने की लड़ाई में आप आक्रमक होते हैं जबकि किला बचाने की जंग में आपको रक्षात्मक होना पड़ता है.
फिर जनता परिवार किस उम्मीद पर राजनीति की यह जंग जीते पायेगा, खास कर तब जब इस परिवार के नेताओं की अलग-अलग पहचान और महत्वकांक्षायें हैं?
कहते हैं नाउम्मीदी कुफ्र है. और निश्चित तौर पर लालू,मुलायम नीतीश नाउम्मीद नहीं हैं. इस बात का आभास नीतीश ने महामोर्चे की रूप रेखा पर चर्चा के बाद दिया भी. मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती खुद उनके द्वरा दिखाये सपने ही बनेंगे. युवाओं से किये उनके आसमानी वादे ही उनके लिये समस्यायें बनेंगी. और महंगाई? सामान्य परिस्तितियों में वस्तुओं के मूल्य की गति का ग्राफ नीचे की तरफ आता ही नहीं. ये चंद मुद्दे नये जनता परिवार के लिए संजीवनी साबित हो सकते हैं. इन समस्याओं की व्यापकता आने वाले दिनों में और बढ़ेगी, जनता परिवार को यह उम्मीद है और यही उम्मीद उसकी लड़ाई के लिए आधार खड़ा कर सकती है.
बढ़ेंगी मंडलवाद की लड़ाई
ऊपर उल्लेख किये गये सैद्धांतिक मुद्दों के अलावा जनता परिवार के लिए एक व्यावहारिक मुद्दा भी है. राजनीतिक विश्लेषकों को यह पता है कि सियासत जोड़ने से ज्यादा तोड़ने की लड़ाई का नाम है. राजनीति के पुरोधाओं को पता है कि साम्प्रदायिक राजनीति अगर समुदायों को बांट कर सत्ता दिला सकती है तो जातिवादी राजनीति भी यही काम करती है. खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में यह नुस्खा आजमाया हुआ है. ऐसे में 2014 के लोकसभा चुनाव के निराशाजनक परिणामों के बाद लालू प्रसाद की पहली प्रतिक्रिया को याद किया जा सकता है. उन्होंने तब कहा था कि ‘अब मंडल फेज दो की लड़ाई शुरू होगी’. यानी जातीय गोलबंदी को आक्रामक रूप दी जायेगी.पर सवाल यह है कि समाज इन मुद्दों को कैसे लेता है. अभी तो इंतजार ही किया जा सकता है.
दैनिक भास्कर, पटना से साभार