शिवानंद तिवारी ने अपनी बात की शुरुआत शराबबंदी के दो साला जलसे के बहाने शुरू की और कहा कि शराबबंदी के दो साला जलसा पर बिहार के अखबारों, खास कर हिंदी अखबारों ने पूरा पेज नीतीश कुमार के भाषण को समर्पित किया है.
नीतीश के चाकर बन गये अखबार
उन्होंने एक बयान फेसबुक पर जारी करते हुए कहा कि नीतीश कुमार ने बिहार के अख़बारों को तो अपना चाकर बनाकर रखा है. सभी ने इनके भाषण पर एक से अधिक ख़बर बनाई है. प्राय: सभी हिंदी अखबारों ने एक पूरा पेज इनके भाषण के लिए दिया है.
तिवारी ने कहा कि सरकारी विज्ञापन अखबारों को मुठ्ठी में रखने का ज़रिया बना हुआ है. पटना से छपनेवाला शायद ही कोई अखबार होगा जिसकी पीठ पर कभी न कभी विज्ञापन बंदी का चाबुक नहीं चला होगा. अख़बारों में क्या छपेगा और क्या नहीं यह रिपोर्टर या संपादक नहीं तय करता है. यह मैनेजमेंट में बैठे हुए लोग तय करते हैं. जब से अख़बारों में स्थायी नियुक्ति की जगह पर कन्ट्रैक्ट बहाली की व्यवस्था शुरू हुई है, संपादकों को तो मालिकों ने जी हुज़ूर बनाकर छोड़ दिया है.
शिवानंद तिवारी यहीं नहीं रुके. उन्होंने इंदिरागांधी का हवाला देते हुए कहा कि इंदिरा गांधी को अख़बारों पर नकेल कसने के लिए इमरजेंसी लगानी पड़ी थी. नीतीश ने बगैर इमरजेंसी लगाए हुए ही यह काम कर दिया है.
प्रेस की आजादी के लिए जेल गये थे नीतीश
तिवारी ने एक पूरानी घटना का जिक्र करते हुए कहा कि मझे याद है कि 1982 में जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री थे. अखबारों से वे तंग थे. सरकारी कारनामों की कोई न कोई ख़बर रोज़ अखबारों में छपा करती थी. इसलिए इन पर क़ाबू रखने के लिए 82 के जुलाई महीने में प्रेस बिल के नाम से एक काला क़ानून बिहार विधानसभा से उन्होंने पास कराया था. बगैर बहस के आनन-फ़ानन में वह बिल पास हुआ था. लेकिन उस काले क़ानून का ऐतिहासिक विरोध हुआ. पत्रकारों से ही यह विरोध शुरू होकर हर क्षेत्र में फैल गया था. उस क़ानून के विरोध में हमलोंगो ने भी प्रदर्शन किया था. प्रेस को ग़ुलाम बनाने वाले उस क़ानून के विरोध में होनेवाले उस प्रदर्शन में नीतीश कुमार भी शामिल थे. नीतीश तब विधायक भी नहीं थे. हड़ताली मोड़ पर पुलिस द्वारा हम पर भारी लाठी चार्ज हुआ. कई लोग गिरफ़्तार हुए थे. उनमें नीतीश कुमार भी थे. लगभग डेढ़ महीना हमलोग फुलवारी जेल में थे. मुझे याद है हमारा दशहरा जेल में ही बीता था.
शिवानंद तिवारी ने कहा कि आज नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं. प्रेस की आजादी के संघर्ष में अपनी जेल यात्रा को वे भूल चुके हैं. उस ज़माने में मुख्यमंत्री के रूप में जगन्नाथ मिश्रा को आज़ाद प्रेस डराता था. इस ज़माने में प्रेस की आज़ादी से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार डर रहे हैं. इमरजेंसी और प्रेस बिल के खिलाफ संघर्ष करनेवाला, जेल जानेवाला नीतीश कुमार आज पूरी बेशर्मी से वही काम कर रहे हैं जो एक ज़माने में जगन्नाथ मिश्रा ने किया था, वह भी अवैध ढंग से और सरकारी ताक़त के अवैध इस्तेमाल के द्वारा.
उन्होंने कहा कि मुझे अख़बार मालिकों की कायरता पर अचंभा होता है. वहीं एक अख़बार ने जब पानी नाक से उपर होने लगा तो अपनी ताक़त का एहसास नीतीश कुमार को कराया था. तीसरे दिन तो नीतीश की हवा निकल गई थी. घुटना टेक दिया था. ठीक है कि आज अख़बार निकालना व्यवसाय है. लेकिन, इस व्यवसाय की एक प्रतिष्ठा है. कम से कम इस व्यावसायिक प्रतिष्ठा की मान रखने की अपेक्षा करना ग़लत तो नहीं है?