दलित उत्पीड़न संबंधी एक्ट को शिथिल किये जाने के बाद हुए आंदोलन पर यह बहस चल रही है कि इस एक्ट का दुरुपयोग होने कारण इस शिथिल कर दिया गया. अमित कुमार ऐसे अनेक कानूनी प्रावधानों की मिशाल दे रहे हैं जिसका खूब नजायज इस्तेमाल होता है.
दलित समाज निश्चय ही सदियों से उत्पीड़ित हैं, उनका उत्पीड़न निवारण हेतु कठोर कानूनी प्रावधान अवश्य होने ही चाहिए। हां! यह अवश्य है कि आंदोलन में हिंसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। संभव है कि इस आंदोलन को बदनाम करने के मकसद से हिंसा किया या, करवाया गया हो। मीडिया भी कुछ अतिरेक में इसका दुष्प्रचार कर रही है।
बहरहाल, मैं आंदोलन की मूल विषय वस्तु पर ही केंद्रित रहना चाहता हूं। एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के कड़े प्रावधानों को शिथिल करने के कारणों पर मेरी आपत्ति है। कथित दुरुपयोग के आधार पर तय किया गया कि इसे शिथिल किया जाय।
यह माना जा सकता है कि कुछ लोगों ने अवश्य उसका दुरुपयोग किया है, लेकिन भारतीय दंड विधान संहिता की ऐसी कौन-सी धारा है जिसका दुरुपयोग नहीं हुआ है? ऐसे में तो पूरी आईपीसी को ही खत्म कर देना चाहिए! सबसे अधिक तो हत्या के मामलों में फंसाया जाता है तो क्या 302 को निरस्त कर दिया जाय!
सब जानते हैं कि कोई नवयुवा जोड़ा प्रेम में घर से भागता है तो अमूमन लड़की के परिजन अपहरण का मामला दर्ज करवाते हैं, जो बिल्कुल सफेद झूठ होता है तो क्या धारा 363, 364 को शिथिल कर देना चाहिए?
प्रायः पुलिस पदाधिकारी योजनाबद्ध तरीके-से किसी व्यक्ति या, अपराधी को जेल भेजने के लिए आर्म्स एक्ट 27 का दुरुपयोग करते हैं, अपने पास से कोई पुराने कट्टे की बरामदगी दिखा देते हैं तो क्या आर्म्स एक्ट को भी बेअसर कर दिया जाय?
सबसे अधिक अतिशय गलत इस्तेमाल 120A और 120B का होता है। किसी मामले में अज्ञात लोगों को षडयंत्र में शामिल बता दिया जाता है। तदनुसार दोहन होता है तो क्या इन धाराओं को अनुपयोगी करार दे दिया जाय? तमाम धाराओं में दर्ज मुकदमों में आए आखिरी न्याय निर्णय के आधार पर विश्लेषण किया जाय तो भारतीय दंड विधान संहिता की ऐसी शायद ही कोई धारा होगी जिसमें आरोपित किये गए मुल्जिम बहुमत में मुज़रिम करार दिए गए होंगे! सभी में निर्दोष साबित होने वालों लोगों की तादाद काफी ज्यादा होगी। दोषी करार दिए जाने वाले अल्पमत में होंगे तो क्या अभियोजन और अनुसंधान के पूरे ढांचे को ही ढाह दिया जाय?