पूर्व सीएम जीतनराम मांझी से जुड़ा आरोप, प्रत्यारोप और विवाद अब ठंडा पड़ने लगा है। सत्ता से जुड़ी चमक भी फीकी पड़ने लगी है। अब यह सवाल स्वाभाविक रूप से पूछा जाने लगा है कि क्या मांझी आंदोलन खड़ा कर पाएंगे।
नौकरशाही ब्यूरो
पूर्व सीएम मांझी की लोक लुभावन घोषणाओं की तपीश भी ठंडी पड़ने लगी है। मांझी सरकार के रद्द की गयी घोषणाओं से प्रभावित लोग भी व्यापक रूप से विरोध में सड़क पर नहीं उतर पाए। अपनी घोषणाओं के समर्थन में मांझी कोई आंदोलन भी नहीं कर पाए। सत्ता में रहते हुए जिस महादलित व दलित स्वाभिमान की राजनीति मांझी कर रहे थे, उसकी हनक भी कहीं सुनायी नहीं पड़ रही है। जदयू के निलंबित विधायकों के सहारे उनकी राजनीति अभी चल रही है। वही लोग उनके लिए सभा आयोजित करते हैं।
पीछे छुटता जा रहा दलित एजेंडा
पूर्व सीएम जीतनराम मांझी अपने दलित स्वाभिमान के मुद्दे पर कमजोर पड़ते जा रहे हैं। दलित राजनीति व दलित स्वाभिमान का मुद्दा पीछे छुटता जा रहा है। उनकी पूरी राजनीति नीतीश या भाजपा पर केंद्रित हो गयी है। ऐसे में मांझी से महादलित राजनीति का नेतृत्व की अपेक्षा करने वाले लोग निराश होने लगे हैं। महादलित व दलित समाज भी अब मांझी से निराश होता जा रहा है। उनकी रणनीति को समझ नहीं पा रहा है। यदि मांझी महादलित मुद्दों को लेकर आक्रमक नहीं होते हैं तो समय के साथ अप्रासंगिक होते जाएंगे। मांझी के साथ खड़े विधायक व समर्थक चुनाव आते-आते किनारे की तलाश में भाजपा में जाएंगे या गठबंधन के बहाने नीतीश खेमे में लौटने का प्रयास करेंगे। जीतन राम मांझी ने यदि अपनी पहचान कायम नहीं रखी तो वे औचित्यहीन हो जाएंगे। अपनी पहचान के लिए उन्हें महादलित एजेंडे का जीवित रखना होगा और इस मुद्दे पर सतत आंदोलन करना होगा। लेकिन मांझी दलित मुद्दे पर कहीं आंदोलन करते नजर नहीं आ रहे हैं। इसकी राजनीतिक कीमत मांझी को चुकानी पड़ सकती है।