गुजरात से दादरी और दादरी से मुजफ्फरनगर होते हुए मुजफ्फर तक जब जुल्म हदों को पार कर जाये तो क्या इंसाफ साध्वी प्राची, महेश शर्मा, संगीत सोम से मांगा जाये या उन पीएम मोदी से जो हर वक्त चुप रहते हैं. इस मामले को युएनओ तो क्या पूरी दुनिया में फैलाने की जरूरत है.dadri

-तबस्सुम फातिमा

यह दिलचस्प संयोग है कि नरेंद्र मोदी जर्मनी पर फिदा हुए और जर्मन चांसलर एंजेला मरिकल से मिले। इतिहास गवाह है कि एडाल्फ हिटलर 30 जनवरी 1933 को जर्मनी का चांसलर नामित हुआ और वहां लोकतंत्रा का अंत हो गया।

 

नाजियों ने सत्ता के प्रभाव से बुनियादी स्वतंत्राता का सपफाया कर दिया और उसके बाद एक खूनी शासन प्रणाली सामने आयी, जिसकी क्रुरता की कहानियां लोग आज भी भूले नहीं हैं। हिटलर की तानाशाही थी कि जर्मनी में नाजी पार्टी के अलावा अन्य राजनीतिक पार्टी की कोई हैसियत नहीं रही। नाजी बलों द्वारा वारसा में भयानक मानव नरसंहार की कहानी दोहराई गई।
अब मोदी सरकार के सत्राह महीनों में कमोबेश वही कहानी दोहराई जा रही है जो जर्मनी में हिटलर के समय दोहराई गई। एक निरंकुश तानाशाह फुछ भी कर सकता है। सांप्रदायिक दंगे भाजपा के लिए संजीवनी जड़ी बूटी की तरह है जिससे उसके वोट बैंक में वृद्धि हो जाती है। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्राओं से लेकर अब तक के इतिहास में यह सिलसिला अब तक कायम है। गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री रहे मोदी इस सच से वाकिपफ हैं। हिंदुत्व एक बार फिर भारत की लेबार्टरी बन गया है। मुसलमान पाकिस्तान जाओ या कब्रिस्तान के नारे जोर पकड़ रहे हैं। महाराष्ट्र में भी लगातार मुसलमानों को सताए जाने की घटनाएं हो रही हैं। ग्रेटर नोएडा के बसाहड़ा गांव में एक दर्जन से अधिक मुस्लिम परिवारों ने अपना घर छोड़ दिया है। मांस पर प्रतिबंध से शुरू हुई कहानी एक निर्दोष मुसलमान की भयानक हत्या पर समाप्त हुई।

 

पीएम की चुप्पी, नेताओं के जहरीले बयान

गौर करें तो 2014 चुनाव जीतने के बाद ही प्रधनमंत्री मोदी की चुप्पी में इस बात का जवाब मिल गया था कि अब अच्छे दिन कभी नहीं आएंगे। चश्मदीद गवाह, सबूतों के बावजूद आईपीएस अध्किारी बंजारा और माया कोडनानियों जैसों के लिए न्याय और कानून का खून किया गया। मुजफ्पर नगर से बिहार के मुजफ्रपफरपुर दंगों तक भड़काऊ बयानों का हाथ रहा। भाजपा नेता गिरिराज सिंह, प्रवीण तोगडि़या, साध्वी सरस्वती, साध्वी प्राची, साध्वी निरंजन ज्योती, योगी आदित्यनाथ, महेश शर्मा के बर्बर बयानों से केवल मुसलमानों को चोट नहीं हुई बल्कि लोकतंत्र पर यकीन रखने वाले विभिन्न समुदाय के लोग भी प्रभावित हुए। 17 महीनों की सरकार में जिस तरह मोदी वेफ मंत्राी और स्वयंसेवकों ने अहंकार की छाया में खुद को बहुसंख्यक कहने पर जोर दियाए वहीं मुसलमानों और ईसाइयों वेफ लिए अल्पसंख्यक शब्द इस तरह इस्तेमाल किये गये, जैसे वे कीड़े मकोड़ों से अध्कि महत्व नहीं रखते हों।

इंसाफ की उम्मीद किस से?

अब मैं इस सवाल पर आती हूं जो सबसे जरूरी है। समाजवादी पार्टी नेता आजम खान ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव को पत्रा लिखा, क्या यह वाकई देश-दुश्मनी है? आजम खान को पहले समाजवादी पार्टी से इस्तीफा देना चाहिए था। क्योंकि मजफ्फरनगर गर से दादरी तक और हाशिमपुरा न्याय तक समाजवादी पार्टी का चेहरा अब पूरी तरह बेनकाब हो चुका है। लेकिन यह भी बड़ा सवाल है कि मुसलमान किस से न्याय मांगें? क्या उस सरकार से, जिस पर गुजरात के खून के ध्ब्बे हैं? क्या उन लोगों पर जो भड़काऊ बयान देकर, अफवाहें फैलाकर लगातार मुसलमानों का खून कर रहे हैं?

यह  सच है कि लगातार दंगों वेफ बावजूद भारत के मुसलमानों का विश्वास लोकतंत्र, कानून और न्याय पर अब भी बाकी है। मोदी के 17 महीनों की सरकार में जिस तरह अल्पसंख्यक विरोधी विशेषकर मुस्लिम विरोधी माहौल तैयार किया गया, क्या न्याय के लिए मुसलमानों को उसी सरकार पर भरोसा करना चाहिए, जो लगातार उन्हें मारने की योजना बना रही है? जैसा कि कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक नेता बयान दे रहे हैं। दादरी की घटना को केवल संयुक्त राष्ट्र नहीं, पूरी दुनिया में ले जाने की जरूरत है। यही मौका है। 17 महीनों में पूरी दुनिया की सैर करने वाले प्रधनमंत्री ने व्यापार और विकास के मुद्दों पर, दूसरे देशों से वार्तालाप तो किया, परन्तु वह अपना देश ही भूल गए।

लगातार बिना थकावट रेडियो पर हर महीने मन की बात कहने वाले मोदी यदि दादरी पर चुप हैं तो सहमे मुसलमान सत्य और न्याय का मांगने किसके पास जायें? तोगडि़या के पास? शिवसैनिकों के पास? साध्वी प्राची, निरंजन ज्योति, केन्द्रीय मंत्री महेश शर्मा और संगीत सोम के पास?

By Editor

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