तूटते परिवारों के इस दौर में कुछ लोग दादा-दादी की भूमिका निभाने पर गौर करने लगे हैं. पटना में रिटार्यड लोगों ने पिछले दिनों इस पर विचार मंथन किया.
मिलाक्षी कनोडिया
इन बुजुर्गों का मानना है कि जहां एक तरफ जिंदगी के भागमभाग में नई पीढ़ी के लोगों को अपने बच्चों के लिए वक्त नहीं वहीं बच्चे अपने दादा-दादी के प्यार से वंचित रहने के कारण पारम्परिक संस्कारों से दूर होते जा रहे हैं. दूसरी तरफ ऐसे बुजर्गों की संख्या भी काफी है जो रिटायर्मेंट के बाद घर में अकेलापन के शिकार हैं, क्योंकि उनके बच्चे नौकरी और रोजगार के कारण उन से दूर रहते हैं.
ऐसे में पटना के कुछ बुजुर्गों ने खुद को दादा-दादी की भूमिका निभाने का फैसला किया है. इससे जहां एक तरफ उनका अकेलापन भी दूर होगा वहीं एकल परिवारों के बच्चों को बुजर्गों का सानिध्य और संस्कार मिल सकेगा.
पटना के एक बुजर्ग राकेश उपाध्याय का कहना है कि वह अपने कुछ रिटार्यड दोस्तों के साथ इस आइडिया पर गौर कर रहे हैं कि वह अपने पास-पड़ोस के बच्चों के साथ कुछ समय बितायें.
राकेश कहते हैं, “रिटायर्मेंट के बाद यह समय का सदोपोयग होगा. वह कहते हैं संयुक्त परिवार की समाप्त होती परम्परा ने नयी पीढ़ी को कई महत्वपूर्ण संस्कारों से अनभिज्ञ बना दिया है. यह एकल परिवार की मजबूरी भी है”.
आजकल बढ़ती महंगायी और गांव व दूर दराज से रोजगार के लिए शहरों में आकर बसने वाले परिवारों के लिए अपनी परम्परा और संस्कारों को सहेज कर रखना मुश्किल हो रहा है. ऐसे में उन्हहोंने अपने पारम्परिक संस्कारों को सहेजने की योजना बनायी है.
हालांकि संयुक्त परिवार का चलन अब भी कई जगह मौजूद है. जहां परिवार के सभी सदस्य घर के मुखिया के साथ हंसी-खुशी रहते हैं. ऐसे परिवारों के बच्चों और एकल परिवारों के बच्चों के संस्कार और आपसी समझ एकल परिवार के बच्चों से ज्यादा विकसित और सुदृढ़ होते हैं.
ऐसे में सामाजिक स्तर पर यह प्रयास किया जाये तो इससे एकल परिवारों के बच्चों में समाज और परिवारों के प्रति जिम्मेदारी विकसित तो होगी ही साथ ही उनमें सहअस्तित्व की भावनायें भी प्रबल होंगी.