दिल्ली पुलिस के इतिहास में उसके नकारेपन का एक और अध्याय तब जुड़ गया जब 2005 के सीरियल ब्लास्ट आतंकी हमले के एक भी मुल्जिम का गुनाह वह साबित नहीं कर पायी. इस हमले में 67 लोग मारे गये थे.
नौकरशाही डेस्क
इस कारण दिल्ली की अदालत ने गुरुवार को इस आतंकी वारदात में एक भी अपराधी को सजा नहीं दे सकी.
दिवाली की पूर्व संध्या पर सरोजनी नगर मार्केट में हुए इस आतंकी हमले का आरोप लश्कर ए तैयबा पर लगा था और इस मामले में अनेक लोग गिरफ्तार हुए थे. अदालत ने मोहम्मद रफीक शाह और मोहम्मद हुसैन फजीली नाम के दो आरोपियों को सभी आरोपों से बरी कर दिया और कहा कि दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा उनके खिलाफ आरोपों को साबित करने में बुरी तरह नाकाम रही.
दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा की इस नाकामी का हाल यह है कि जो लोग गिरफ्तार किये गये और दस सालों से जेल की सलाखों में कैद थे वे बिना गुनाह के ही जेल में रहे. अदालत ने फैसला दिया है कि उन्हें तमाम गुनाहों से बरी किया जाता है. विशेष शाखा के लिए शर्म की बात है कि उसने न सिर्फ गुनाहगारों की निशानदही करने में नाकाम रही बल्कि बेगुनाह को लम्बे समय तक जेल में बिताना पड़ा.
धमाकों में डार की भूमिका के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं मिलने की बात कहते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश रितेश सिंह ने तारिक अहमद डार को सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने की साजिश रचने के आरोपों से भी बरी कर दिया. हालांकि उन्हें सिर्फ इस मामले का दोषी पाया गया कि वह आतंकी संगठन के सदस्य हैं. और इसलिए उन्हें अधिकतकम दस साल की सजा दी जा सकती थी जिसे उन्होंने फैसला आने से पहले ही काट लिया है.
अदालत के इस फैसले के बाद दो सवाल उभर कर सामने आये हैं. पहला- वे कौन लोग थे जिन्होंने बम धमाकों में 67 मासूमों की जान ली? और दूसरा- जांच एजेंसियां अपनी बदतरीन नाकामी को छुपाने के लिए आखिर बेगुनाहों पर आरोप मढ़ कर उनकी जिंदगी बरबाद करती हैं तो उसका हिसाब क्या होगा?