उत्तर प्रदेश की जनता ने फैसला सुना दिया कि इस देश में शांति और भाईचारा जरूरी है, नफरत, घृणा और समाज को तहस-नहस करने वालों के लिए यूपी असेम्बेली चुनाव नतीजे एक सबक है.
इर्शादुल हक, सम्पादक, नौकरशाही डॉट इन
वहां ग्यारह सीटों पर चुनाव हुए. इनमें से सभी ग्यारह पर भाजपा और एक पर उसकी सहयोगी पार्टी अपना दल का कब्जा था. अब जो उपचुनाव हुए हैं, अब तस्वीर बिल्कुल उलट गयी है. 11 में से 8 सीटों पर भाजपा करारी शिकस्त का सामना कर रही है.
भाजपा के तीन नेताओं ने जिस तरह से नफरत और विभाजन की लकीरें खीच कर वोट लेने की कोशिश की उसे जनता ने नकार दिया. ये तीन नेता- अमित शाह, योगी आदित्य नाथ और साक्षी महाराज ने जिस तरह से साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की कोशिश की लेकिन जनता ने दिखाया कि यह देश मजहबी सौहार्द्र चाहता है.
भाजपा के प्रेसिडेंट ने तो यहां तक कह डाला था कि यूपी में साम्प्रदायिक तनाव बने रहे तो उनकी पार्टी 2017 में यूपी में होने वाला चुनाव भी जीत जायेगी. लेकिन जनता ने दिखा दिया कि उन्हें नफरत स्वीकार नहीं. योगी आदित्यनाथ ने तो मुसलमानों के खिलाफ जिस तरह से जहर उगला उसका करारा जवाब भी जनता ने, खास कर हिंदुओं ने दिया. हालत तो यह कि यूपी की जनता ने नरेंद्र मोदी के चुनाव हलके बनारस के रोहनिया में भी भाजपा को सबक सिखा दिया.
दर असल यूपी में भाजपा की हार उसकी घृणा आदारित राजनीति के लिए अपमानजनक हार है. पर वह ऐसा मानेगी नहीं.
भाजपा की भूल
भाजपा ने अगर अखिलेश यादव सरकार के नाकारापन को मुद्दा बनाया होता, कानून व्यवस्था की बदहाली को इश्यु बनाया होता तो संभव होता कि लोग उसके संग आते और आज जिस बुरी हार का भाजपा को सामना करना पड़ा है, वह नहीं करना पड़ता.
जनता विकास चाहती है, शांति चाहती है. पर अमित शाह की टीम मजहबी आग भड़काने के रवैये से बाज नहीं आयी. सहज प्रश्न है कि महज चार महीने पहले जीत का इतिहास रचने वाली भाजपा, अपने गढ़ गुजरात ही नहीं बल्कि राजस्ान और यूपी में भी चारों खाने चित हो गयी है.
यह देश मजहबी सौहार्द, आपसी भाईचारा और अमनपसंदी को स्वीकार करता है, नफरत, द्वेष, मजहबी विभाजन और घृणा को नहीं. यूपी की जनता ने उपचुनाव में यही दिखाया-समझाया है. पर सवाल यह है कि अमित शाह और आदित्य नाथ जैसे भाजपा नेता क्या यह समझेंगे?