सत्ता का मोह त्यागना, सांसदी का वैभव ठुकरा कर नगर-डगर घूमना और उस सिंहासन की चुनौती स्वीकारना, जिसकी गिरफ्त बिहार की राजनीति पर बदस्तूर मजबूत है, ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा क्या विकल्प के प्रतीक बन सकते हैं?
ऐसे में नौकरशाही डॉट इन के सम्पादक इर्शादुल हक ने उपेंद्र कुशवाहा से मंथन के लहजे में बात की. उनके राजनैतिक विकल्प के दर्शन को समझा. उनकी चिंतन की सीमाओं का विश्लेषण किया. आप भी इस मंथन और विश्लेषण को समझें.
यह चुनौती आसान नहीं है, बिल्कुल नहीं. खासकर तब और जब मेनस्ट्रीम मीडिया नीतीश सरकार की वाहवाही के आरोपों से घिरी है और आलोचना के स्वर अखबारों से गायब हैं. यह अलग बात है कि पिछले एक साल में बिहार की जनता नीतीश कुमार की सरकार के खिलाफ गलियों,मोहल्लों और सड़कों पर आ रही है. उनकी रैलियों का विरोध कर रही है, काले झंडे दिखा रही है. पर इस छिटपुट विरोध का पिछले एक साल से किसी राजनीतिक नेतृत्व का प्रत्यक्ष समर्थन नहीं रहा है.
ऐसे में जनता ने इशारा तो कर दिया है कि वह क्या चाहती है, अब नेतृत्वकर्ताओं पर निर्भर करता है कि वे जनता की आवाज को समझें, ना समझें.
वैसे राजनीतिक विरोध के दो स्वर पहले से मौजूद हैं बिहार में- लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान. पर इन दोनों के विरोध की सीमा की हदें उनके गुजरे शासनकाल की छाया में धुंधलकी सी हो जाती है. लोग उनके पिछले दौर की यादों के अनुभवों पर बहस करने लगते हैं.
विकल्प क्यों
उपेंद्र कुशवाहा इस सवाल को सुनते हैं. गौर करते हैं. फिर चेहरे पर हलकी मुस्कान लिये कहते हैं- “बिहार की जनता को सबने निराश किया है. लालू प्रसाद यादव के बाद नीतीश जी से बड़ी उम्नीदें थीं जनता को. पर उन्होंने तो भरोसा ही तोड़ दिया है”. एक छोटी खामोशी के बाद कुशवाहा आगे कहते हैं, “लोतंत्र में तानाशाही का फलसफा नहीं चल सकता. जनता की आवाज दबा कर, उनकी उम्नीदों की कुर्बानी लेते रहिए यह लोकतंत्र को स्वीकार्य नहीं है. क्योंकि अंतिम फैसला जनता करती है. मधुबनी से लेकर नालंदा तक नवादा से लेकर चम्पारण तक जो विरोध इस सरकारने देखा है वह काफी, यह समझेने के लिए कि जनता खुश नहीं है. उसने विकल्प की मानसिकता बना ली है”.
कौन कहता है कि राजा ने मेरी तकदीर को संवारा है.
राजा की दी हुई हर चीज मैं खाक में मिला कर आया हूं.
हर बार जबभी मैंने कदम बढाया राजा ने मेरे मंच पर आ
कर मिन्नत की है ताकि वह शासन का मुकुट पहन सके.
फिर जब सत्ता मिली तो उसने संघर्ष के साथियों से मुंह मोड़
लिया. अब मेरे नाम से कोई क्रेडिट अपने माथे पर चस्पा मत
करना क्योंकि अब में जनता के बीच सड़क पर हूं.
राज्यसभा की कुर्सी छोड़ने पर उपेंद्र कुशवाहा
जनता निराश क्यों
पर सवाल यह है कि जनता में इतनी नाराजगी क्यों है. क्या सचमुच जनता का भरोसा तूटा है? कहां गलती कर रही है सरकार ? इन बातों पर उपेंद्र गौर करते हुए कहते हैं- “अनेक गंभीर मुद्दे हैं. यह राज्य किसानों की बहुलता का है.किसान इग्नोर्ड हैं.उनकी समस्यायें जस की तस है. नहरों की सिचाई व्यवस्था को देखिए. ठप है.18 घंटे किसानों को बिजली की बात बेमानी साबित हुई है. सात साल होने को आये. क्या हुआ? खाद बीज पर हाहाकार है, भ्रष्टाचार है. अनाजों के समर्थन मूल्य में बिचौलियों की लूट है. किसान बेदम है.दूसरी बड़ी आबादी युवा पीढ़ी की है.उनके सपने तूटे हैं, उम्मीदें ध्वस्त हुई हैं. शिक्षा के मोर्चे पर तो बवाल की बात दोहराने की जरूरत नहीं. नियोजित शिक्षकों के साथ जो सुलूक इस सरकार ने किया है वह एक गंभीर मुद्दा है. मनरेगा मजदूर जितनी मजदूरी(लगभग) पर शिक्षक काम करें, यह कहां का इंसाफ है. प्राथमिक शिक्षा व्यस्था जिस तरह चौपट हुई है उससे आने वाली पीढियों के दर्दनाक भविष्य की उम्मीदें निराश करती हैं. जनता सब महसूस करती है. दिन रात चौपालों की बहस के यही मुद्दें होते हैं”.
यह शिक्षक ही हैं जिन्होंने मधुबनी से लेकर पूर्वांचल तक और नवादा से नालंदा तक काले झंडे लिए फिरते रहे. पर शिक्षकों का मामला जितना गंभीर है उतना ही गंभीर शिक्षा का है. हजारों नियोजित शिक्षकों पर अयोग्य होने की शिकायतें चस्पा हैं. उन्हें पढ़ाने की योग्यता नहीं. इस सवाल पर उपेंद्र खुद एक सवाल खड़ा करते हैं. किसने इन लोगों को नियुक्त किया? आपकी नियुक्ति प्रक्रिया ध्वस्त थी. लेकिन अब वह चैप्टर क्लोज्ड है. इन शिक्षकों ने अपने करियर का पांच-सात साल लगा दिया है. उनमें अगर शिक्षण की योग्यता नहीं तो उन्हें हटा थोड़े जा सकता है. यह क्लयाणकारी राज्य है न कि कोई कार्पोरेट कम्पनी. आप को उन्हें सम्मानित वेतन देना ही होगा. भले ही उनमें से कुछ को अन्य विभागों में समायोजित करना पड़े, तो किया जाये.
भ्रष्टाचार की बात
आप गांवों, कसबों प्रखंडों में जाइए. किसी भी चौक चौराहे पर आप सुन सकते हैं कि नीतीश राज ने भ्रष्टाचार को आसमान पर पहुंचा दिया है. वहीं दूसरी तरफ अखबारों की भाषा बिल्कुल उलट है. हर पन्ना यह आभास कराता है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगा दिया है सरकार ने. भई, कुछ नौकरशाहों की सम्पत्ति जब्त कर आप स्कूल खोल कर वाहवाही लूटने का भ्रम पाल लेते हैं. दिखावे के लिए अधिकारियों और मंत्रियों की आमदनी सार्वजनिक करते हैं. पर आप बताइए कि हर साल उनकी आमदनी पिछले साल की तुलना में किस तरह बढ़ती चली जाती है. ये पैसे, ये दौलत कहां से आ रहे हैं? जाहिर है जनता की दौलत है ये. उनकी गाढ़ी कमाई नौकरशाहों मंत्रियों के खजाने का हिस्सा बनती जा रही हैं. मैं तो सुझाव देता हूं कि सम्पत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने के बजाये उनके इंकम टैक्स और आमदनी के स्रोत को सार्वजनिक करने का प्रोविजन करिए. देखिए क्या रंग जमता है तब.
नीतीश स्टाइल ऑफ फंकशनिंग
यह नीतीश कुमार का स्टाइल ऑफ फंकशनिंग है. वह न तो नीति से लोकतांत्रिक हैं और न ही आचरण से. उनकी नजरों में सरकार का मतलब सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार है. पुल-पुलिए के शिलान्यास से लेकर योजनाओं के नाम तक में “मुख्यमंत्री नीतीश कुमा के कर कमलों से…” शिलापट मिल जायेंगे. इसलिए विधायकों मंत्रियों और कार्यकर्ता का वजूद ध्वस्त कर दिया है इन्होंने. उनके नुमाइंदे नौकरशाह हैं. क्योंकि उनो राजनीतिक नेतृत्व के उभार से डर लगता है. सभी श्रय उन्हें चाहिए. नेता मतलब नीतीश कुमार. यही है उनके काम का अंदाज. वह मानते हैं कि नौकरशाहों से उन्हें खतरा नहीं क्योंकि वह सरकार के स्थाई मुलाजिम हैं. नौकरशाही को खुली छूट देना उनकी स्टाइल ऑफ फंकशनिंग का हिस्सा है. जब नौकरशाही बेलगाम होगी तो लूट-खसोट और भ्रष्टाचार सातवें आसमान पर पहुंचेगी, इसकी नजीर सामने है.
क्या है विकल्प
उपेंद्र कुशवाहा किसी जल्दबाजी में नहीं है. वह सत्ता परिवर्तन का दावा नहीं करते. वह मानते हैं कि परस्थितयां सब कुछ तय करती हैं. एक आम नागरिक और एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में वे जनता की चिंता के साथ हैं. वह कहते हैं “पिछले चंद महीनों में हमने जिलेवार दौरा किया है.जनता के बीच जा कर हमने उनको समझने की कोशिश की है. मेरी समझ यहां तक पहुंची है कि जनता एक नये नेतृत्व की तलाश कर रही है. मौजूदा निजाम से वह खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है. जिस तरह जनता नये और वैकल्पिक राजनीतिक दर्शन की तलाश कर रही है ठीक उसी तरह हम लोग भी जनता की इस सोच के साथ हैं, पूरी उम्मीद उत्साह और भरोसे के साथ.