मशहूर शायर और राजनेता 92-वर्षीय बेकल उत्साही उर्फ़ मोहम्मद शफ़ी खान का शनिवार सुबह दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में निधन हो गया. उर्दू और हिंदी साहित्य के लिए एक सदमे जैसा है।
ध्रुव गुप्त
बेकल उत्साही जिगर मुरादाबादी के प्रिय शिष्य रहे थे। उन्होंने उर्दू में ग़ज़लें, नात, रुबाइयां ही नहीं कही, हिंदी और अवधी में गीत, नवगीत और दोहे भी लिखे। खुद को जायसी और रसखान की परंपरा से जोड़ने वाले बेकल साहब उन शायरों में थे जिन्हें भारतीय संस्कृति की गहरी समझ थी और जिन्होंने अपनी शायरी में ही नहीं, अपने जीवन में भी देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब को बखूबी जिया।
उनका मानना था कि ‘कविता में अपनी मिट्टी,अपने देश की बात होनी चाहिए। हमने सदियों से दूसरों को संस्कृति का पाठ पढ़ाया है। आज हम अपनी संस्कृति छोड़कर दूसरों के मोहताज क्यों हों ?’ बेकल साहब को खिराज़-ए-अक़ीदत, उनके लिखे मेरे एक प्रिय गीत के साथ !
मां मेरे गूंगे शब्दों को
गीतों का अरमान बना दे
गीत मेरा बन जाये कन्हाई
फिर मुझको रसखान बना दे !
देख सकें दुख-दर्द की टोली
सुन भी सकें फरियाद की बोली
मां सारे नकली चेहरों पर
आंख बना दे,कान बना दे !
इस धरती को खुदगर्जों ने
टुकड़े-टुकड़े बांट लिये हैं
इन टुकड़ों को जोड़ के मैया
सुथरा हिन्दुस्तान बना दे !
गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दे !