यह बात हवा में तेजी से फैल रही है कि कांग्रेस पंच बनने की अपनी खानदानी आदत के तहत तेजस्वी पर दबाव बना रही है कि नीतीश को फिर से साथ लिया जाये. जयंत जिज्ञासु का मानना है कि अगर तेजस्वी इस दबाव में आ गये तो सारा गुड़ गोबर हो जायेगा.
जब कांग्रेस के शासनकाल में 1989 का भयावह दंगा हुआ, तो लालू प्रसाद ने अलौली (खगड़िया) की एक सभा में कहा था कि कांग्रेस को उखाड़ कर बंगाल की खाड़ी में फेंक देंगे। यह उस वक़्त की कांग्रेस की गाभिन नीति के विरुद्ध एकदम ठीक तेवर था। आज सियासी हालात कुछ और हैं। कांग्रेस की जगह पर बीजेपी को रख दीजिए। लेकिन, यह नहीं भूलना चाहिए किसी भी विश्लेषक को लालू अपने उरूज पर तभी तक थे जब तक वो कांग्रेस के आगे नतमस्तक नहीं हुए और अपनी शर्तों पर सियासत करते रहे।
इधर पिछले दो महीने से यह सुगबुगाहट है कि कांग्रेस सरपंच बनने की अपनी ख़ानदानी आदत और पुश्तैनी बीमारी से लाचार होकर राजद पर धीरे-धीरे यह दबाव बना रही है कि आगामी चुनाव में वो नीतीश की पिछली बेहयाई को भूलकर उन्हें साथ ले ले। ज्योंहि तेजस्वी ने दूरगामी राजनीति के लिहाज से यह आत्मघाती क़दम उठाया कि न सिर्फ़ उनके परंपरागत वोटर्स में ग़लत संदेश जाएगा, बल्कि उनका मनोबल भी चकनाचूर होगा। किसी तरह के दबाव के आगे नहीं झुकने वाले ही बेहतर निगोशिएट कर पाते हैं। अभी से अगर तेजस्वी किसी स्वनामधन्य सलाहकार के चक्कर में पड़कर उलटपुलट डिसीजन लिए, तो उन पर न सिर्फ़ “एकात्म कुर्सीवाद” (अजित अंजुम का ईज़ाद किया हुआ टर्म है) का आरोप लगेगा, बल्कि बड़ी लगन से बेहद कम अवधि में अर्जित अपनी विश्वसनीयता भी खो देंगे। उत्थान मुश्किल होता है, पतन की राह तो हमेशा से आसान रही है। ख़याल रहे कि कांग्रेस का इतिहास ही है कि वो कभी किसी क्षेत्रीय दल या नेता को फलते-फूलते नहीं देखना चाहती। ठीक है कि अभी भाजपा ने पूरे देश में कहर बरपाया हुआ है, मगर अपने वुजूद को कांग्रेस के इशारे पर कहीं किसी में विलीन कर देना सिवाय मूर्खतापूर्ण डिसीजन के और कुछ नहीं कहा जाएगा।
नीतीश पर भरोसा?
बहुत कम लोगों को पता है कि पिछले विधानसभा चुनाव के ठीक बीच में लालूजी को एक बड़े पत्रकार ने यूं ही बातचीत में कहा कि बिल्कुल सही वक़्त पर देशहित में सही फ़ैसला आपने लिया, सरकार तो आपके गठबंधन की ही बनने जा रही है, कहीं कोई शकोसुबहा नहीं है; पर स्पीकर का पद मत छोड़िएगा। लेकिन, लालूजी ने उस बात को बहुत हल्के में लिया कि हां, वो कोई मसला नहीं है, 20 से पहले कहां जाएगा। इतना भरोसा था उन्हें नीतीश जी पर।
अब मुझे नहीं मालूम कि किस तज़ुर्बे के आधार पर दिलीप मंडल जी नीतीश की फिर से गठबंधन में एंट्री की वकालत कर रहे हैं। कम-से-कम पिछले बीस वर्षों से तो नीतीश जी की राजनीति के पैटर्न, स्टाइल और वर्क कल्चर को फॉलो कर ही रहा हूँ और कुछ पिताजी की सियासी सक्रियता की वजह से भी अंदर की बात पता चल जाती थी। इस आदमी के बारे में यूं ही हवा में नहीं कह दिया जाता कि कभियो इ पलट के काट ले सकता है। इतिहासे है इनका। अब मैं आपके सामने दिलीप जी के प्रस्ताव को यहाँ एज इट इज़ रख दे रहा हूँ, “मेरी राय है कि नीतीश को गठबंधन में ले लेना चाहिए. बाकी बाद में देखना चाहिए कि क्या करना है. नीतीश को सीट कम देनी चाहिए. बीजेपी भी 8 सीट ही दे रही है. तेजस्वी भी इतनी ही दे दें.”
ऐसा है कि बिहार की राजनीति सर्कस नहीं है और यहाँ की जनता कोई फुटबॉल नहीं कि जब जिसको मन हो आके किक लगा दे कभी सेंटर से कभी फॉरवर्ड से। जैसे बड़ी चालाकी से महागठबंधन में सटकर जीत के नीतीश भाग गए अपने पुराने यार के पास, वैसे ही लोकसभा की सीटें भी सटकर जीत लेंगे और फिर मोदी-शाह अपने डंडे से इनको हांक के अपने टेंट में लेके चले जाएंगे। हां, इस पूरे खेल में सेल्फ गोल करने का किसी का मन हो तो कौन क्या करे! यहाँ की जनता का न्यायबोध ज़बरदस्त है, कोई ख़ुद को ढेर क़ाबिल समझने लगता है और उसे फॉर ग्रांटेड लेता है कि जैसे मन होगा वैसे हांक लेंगे या जोत देंगे, तो उसे बढ़िया से ठिकाने भी लगा देती है। बाक़ी,
जम्हूरियत में कम-से-कम इतनी आज़ादी तो है
के हमको ख़ुद करना है अपने क़ातिलों का इंतख़ाब। (शायद जिगर या कैफ़ी)
अभी तो इनकी दुर्गति शुरू हुई है!
मोदी-शाह वाले एनडीए में अपनी डांवाडोल स्थिति को भांपते हुए, 19 में फिनिश होने के खतरे को आंक कर बिहार में मज़बूत विपक्ष को देख ललचाए नीतीश कुमार का कल बयान आया कि नोटबन्दी से सिर्फ़ ग़रीबों का नुकसान हुआ। आगामी लोकसभा चुनाव में सीट बंटवारे को लेकर होता नुकसान देख जनाब का यह बयान आया है। नीतीश इतने बड़े महामूर्ख तो हैं नहीं कि उन्हें तब समझ में नहीं आया जब समर्थन कर रहे थे। गांव में लोग कहते हैं कि ढेर क़ाबिल आदमी तीन जगह माखता है। दम धरिए, अभी तो इनकी दुर्गति शुरू हुई है! बहुत कुछ भुगतना बाक़ी है। आरएसएस अभी इनकी नाक रगड़वाए बगैर इन्हें छोड़ेगा नहीं।
इसके पहले 15 मार्च को भी दिलीप जी ने नीतीश कुमार के प्रति रहम बरतने का मंतव्य प्रकट किया था। तब भी दिलीप मंडल जी का कुछ इसी से मिलता-जुलता प्रस्ताव था- “नीतीश कुमार पल्टी मारें, तो तेजस्वी यादव को दिल बड़ा कर लेना चाहिए”। मैं तेजस्वी को इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज़ करने का अयाचित परामर्श देने का दुस्साहस करता हूँ। हज़ार बार कह चुका हूँ कि लालू-विरोध ही नीतीश जी की एकमात्र युएसपी है, वो लालू प्रसाद का विरोध करना छोड़ दें, तो उनके पास अपना बचेगा क्या सिवाय सिफ़र के?
अलौली (खगड़िया) में एक जगह है हरिपुर, कुर्मी बाहुल क्षेत्र। नीतीश जी को तब भी वहाँ प्रचार के लिए बुलाया जाता था जब अविभाजित जनता दल था और तब भी जब वो जनता दल (जॉर्ज) को समता पार्टी का रूप दे चुके थे।
एक बार लालू प्रसाद के ख़िलाफ़ बोलते-बोलते वो बहक गए यह सोचते हुए कि सजातीय लोगों का इलाक़ा है, यहाँ कौन क्या कहेगा। उन्होंने कहा, “लालू प्रसाद मुंज हैं जिनकी जड़ में मट्ठा डालके हम तहसनहस कर देंगे”। इतना सुनना था कि लालूजी के दल के कुर्मी जाति, पासवान जाति और यादव जाति (यादव बहुत कम संख्या में हैं उस इलाक़े में) से संबद्ध लोग ईंटा-पत्थर मंच पर फेंकना चालू कर दिए। अपना ऊबाऊ-झेलाऊ भाषण बीच में ही छोड़छाड़कर उन्हें भागना पड़ा, बमुश्किल उन्हें हैलीपैड तक पहुंचाया गया।
इस प्रसंग का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ की नीतीश कुमार के मन में लालू प्रसाद के लिए किस कदर ज़हर घुला हुआ है। इसलिए, सियासी रूप से कमज़ोर होने पर नीतीश जी की रोनी सूरत पर मत जाइए। ज़रा सा वो ताक़तवर होंगे कि भस्मासुर की तरह आपही के माथे पर हाथ धरने के लिए परपरिया रौदा ( चिलचिलाती धूप) में आपको दौड़ते रहेंगे। इसलिए, सावधान! अब सियासत भावुकता से नहीं चलेगी कि नीतीश के पास भावना है ही नहीं। व्यक्तिगत जीवन में भी और सामाजिक-राजनैतिक जीवन में भी भयंकर रूप से क्रूर आदमी हैं। कैसे भूल जाते हैं लोग कि उपेंद्र कुशवाहा की वयोवृद्ध मां समेत पूरे परिवार को सामान सहित रात में आवास से फेंकवा दिया, पासवान को तो नेस्तनाबूद करके ही छोड़ दिया, सतीश कुमार, दिग्विजय और जॉर्ज को ख़ून के आंसू रुला दिए, उदयनारायण और जीतनराम को लगातार ज़लील किया। महागठबंधन बनने से पहले ख़ुद लालू की पार्टी को चकनाचूर कर देने से बाज नहीं आए।
नीतीश ख़त्म हो रहे हों, तो एकदम ख़त्म हो जाने दीजिए। वह व्यक्ति न दया का पात्र है न कोई सहानुभूति डिज़र्व करता है। ऐसे लोगों को दूध-लावा नहीं चढ़ाया करते, नहीं तो काटने पर ट्वीटर पर मत कोस कर ट्रेंड कराया कीजिए कि नीतीश ट्वायलेट चोर है। उस आदमी को खाद-पानी देके पालिए-पोसिएगा तो एक दिन फिर डंसेगा ही। लालूजी की सब बात भूल जाइए, बस उनकी एक पसंदीदा लोकोक्ति याद रखिए:
रोपे पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय।
बाक़ी, जो मन आए सो कीजिए।
28.05.18