बुधवार की आधी रात है. नीतीश, भाजपा विधायकों के साथ सरकार गठन का दावा पेश करने राजभवन जा रहे हैं. चौराहे पर उद्घोष होता है- ‘एक ही नारा-एक ही नाम जय श्री राम, जय-जय श्री राम’. न्यूज चैनल का रिपोर्टर माइक थामे कहता है- वर्षों बाद राजभवन चौराहा जय श्री राम के नारों से गूंज रहा है. इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
इसी चौराहे पर जदयू के चर्चित कार्यकर्ता महमूद अशरफ अपने साथियों के साथ बैठ हैं. गगनचुम्बी नारे को सुन कर महमदू के एक सहोयगी की जुबान से हताशा में निकलता है- ‘ऐसे में अब मुसलमानों का क्या होगा’.
दूसरे दिन नीतीश शपथ लेते हैं. तब पूरे बिहार में जय श्री राम के नारे गूंजते हैं. तीसरे दिन नीतीश बहुमत हासिल करते हैं तब विधान सभा इसी नारे से गूंज जाता है. इसके बाद जद यू के विधायक, खुरशीद आलम उर्फ फिरोज चीख-चीख कर न्यूज चैनलों से कहते हैं कि वह जनहित में सुबह-शाम जय श्री राम का नारा लगायेंगे. चैनल का रिपोर्ट उन्हें याद दिलाता है कि जय श्री राम का नारा मंदिर या पूजा पंडालों में लगे, विधान सभा में क्यों. इस सवाल का जवाब फिरोज टाल जाते हैं.
बहिष्कृत होने का एहसास
नीतीश के बदले निजाम का यह बदला माहौल है. जब जद यू के सक्रिय कार्यकर्ता महमूद अशरफ जो उर्दू अखबारों में हमेशा जगह पाते हैं, उनके सहयोगी जय श्री राम के नारे से इसलिए असहज होते हैं कि यहां श्री राम एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रकट हो रहे थे. श्री राम के इस उद्घोष का मतलब कहीं भी धर्म से नहीं था. जब एक धर्म विशेष का कार्यकर्ता पालिटिकल माहौल में धार्मिक नारा लगाता है तो उस वक्त दूसरे धर्म के लोगों के लिए खुद के बहिष्कृत होने का एहसास बढ़ता है.
पिछला अनुभव
राजद से अलग होने के बाद जब नीतीश भाजपा के सहयोग के साथ सरकार गठन कर लेते हैं तो स्वाभाविक तौर पर भाजपाइय़ों में उत्साह का माहौल है. यह उत्साह विधानसभा से ले कर खेत खलिहानों तक है. इस उत्साह में मुसलमान खुद को कहां पाते हैं, यह महमूद अशरफ के सहयोगी के वाक्य से परिलक्षित होता है. अब सवाल यह है कि क्या नीतीश ऐसे माहौल को आगे भी जारी रहने देंगे? जब हम नीतीश कुमार के सात साल तक के उस कार्यकाल को याद करते हैं, जब भाजपा उनकी सहयोगी के रूप में सरकार में शामिल थी. तब के माहौल में नीतीश ने कानून व्यवस्था और साम्प्रदायिक माहौल को ( कुछ अपवादों को छोड़ कर) नियंत्रण में ऱखा. यकीनन विकास की गति को बढ़ाया. इसमें मुसलमानों ने भी विकास में खूब भागीदारी प्राप्त की. मदरसों का सरकारी करण हुआ. उर्दू के नियोजित शिक्षकों की खूब नियुक्तियां हुईं. तालीमी मरकज गांव-गांव में खुले. साम्प्रदायिक तनाव को खत्म करने के लिए विवादित कब्रिस्तानों की घेराबंदी हुई. और भी बहुत कुछ हुआ.
बदले माहौल में नीतीश से उम्मीदें
पर नीतीश का वह कार्यकाल 2014 तक का था. तब केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं बनी थी. नरेंद्र मोदी सत्ता में आये तो पूरे हिंदुस्तान की फिजां बदली. घर वापसी, लव जिहाद, गोरक्षा के नाम पर मुसलमानों में आतंक का माहौल बैठता चला गया. गुजरात से ले कर, झारखंड और यूपी तक गाय के नाम पर हत्यायें हुई. भीड़ ने मासूमों को पीट-पीट कर मार डाला. डर का यह माहौल बिहार की सीमाओं में भी दाखिल हुआ. सम्सतीपुर में एक पत्रकार और चम्पारण में कुछ मुसलमानों को जय श्री राम का नारा लगाने के लिए बाध्य किया गया. नारा नहीं लगाने पर पीटा गया.
क्या ऐसा माहौल बिहार में अब आम होने वाला है? क्या नये निजाम में मुसलमानों में भय और आशंका बढ़ेगा? इस सवाल का जवाब सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार के पास है.
नीतीश कुमार कानून और व्यवस्था वह साम्प्रदायिक मुद्दों पर सख्त शाशक के तौर पर अपनी पहचान रखते हैं. उनकी पार्टी इस बात का डंका पीटती भी है और कहती भी है कि सुशासन नीतीश कुमार की पूंजी है. ऐसे में कोई वजह नहीं कि नीतीश कुमार अपनी इस पूंजी को गंवाना चाहेंगे. बल्कि अब जो हालात बन रहे हैं, उसमें यह साफ है कि नीतीश यह चाहेंगे कि मुसलमानों को लालू प्रेम से तभी बाहर निकाल कर, नीतीश प्रेम के दायरे में लाया जा सकता है जब मुसलमान खुद को समाज व राजनीति की मुख्य धारा से जुड़ा महसूस करें और विकास में बराबर का भागीदार बनें.
उम्मीद भरी नजरें
अगर नीतीश ऐसा कर पाने में कामयाब रहते हैं तो उनकी लोकप्रियता में इजाफा होगा. लेकिन इन सब बातों के बावजूद भाजपा द्वारा धार्म की राजनीति और नारों के उद्घोष से बनने वाले माहौल पर भी उन्हें नियंत्रण करना होगा. भीड़ की हिंसा, एक खास पहिरावा और खान पान के नाम पर नफरत और भय के माहौल को रोकने में अगर नीतीश कामयाब नहीं होते हैं तो बिहार के 17 प्रतिशत आबादी वाले मुस्लिम समाज की सहानुभूति लालू के प्रति बनी रहेगी. ऐसे में नीतीश कुमार द्वारा अगले कुछ महीनों में उठाये गये कदमों के बाद स्थितियां दिखेंगी. फिलहाल इंतजार करना होगा.