नीतीश सरकार ने दारू बंदी कानून में संशोधन को मंजूरी प्रदान कर दी है और इस संबंध में एक विधेयक विधान मंडल के मॉनसून में लाया जाएगा। इसमें सजा के प्रावधानों में बदलाव किया जाएगा और जुर्माना पर ज्यादा फोकस किया जाएगा। लेकिन प्रशासनिक सूत्रों की मानें तो शराब का सौदा अब नीतीश के हाथ से सरक गया है। पिछले डेढ़-दो वर्षों में शराब की तस्करी में लगी लॉबी इतनी ताकतवर हो गयी है कि सरकार की ‘मुट्ठी’ में नहीं आ रही है।
वीरेंद्र यादव
शराब लॉबी के साथ पुलिस व प्रशासन के अधिकारी भी शामिल बताये जा रहे हैं। एक आइपीएस अधिकारी के खिलाफ शराब तस्करी के आरोप में कार्रवाई भी की गयी है। शराबबंदी कानून का खामियाजा गैरसवर्ण जातियों के लोगों ने ज्यादा भुगता है। इस संबंध में आयी मीडिया रिपोर्ट के बाद सरकार दबाव में आ गयी है। सामाजिक समीकरण सरकार के खिलाफ जा रहा है। बताया जा रहा है कि शराबबंदी कानून में संशोधन में सरकार शराब लॉबी के हितों का भी ख्याल रख रही है। उधर विपक्षी दल लगातार आरोप लगा रहे हैं कि शराबबंदी के नाम पर शराब की होम डिलीवरी शुरू हो गयी है। होम डिलीवरी से शराब लॉबी ताकतवर बनी है और कुछ पार्टियां का आर्थिक पृष्ठपोषण भी कर रही है।
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पोस्टिंग में जाति का भी रखा जाता है ध्यान
प्रशासनिक व पुलिस पदाधिकारियों के स्थानांतरण और नियुक्ति में जाति का पूरा ख्याल रखा जाता है। सामाजिक समीकरण राजनीतिक की मजबूरी है और प्रशासन की भी। लालू यादव के राज में प्रमोटी अधिकारियों को ज्यादा तरजीह मिलती थी, जबकि नीतीश के राज्य में डायरेक्ट आईएएस व आईएएस अधिकारियों को तरजीह ज्यादा मिल रही है। इस संबंध में एक वरीय अधिकारी ने बताया कि अधिकारियों की पोस्टिंग में जाति का भी ध्यान रखना पड़ता है। दिक्कत उन अधिकारियों को लेकर होती है, जिनकी जाति स्पष्ट नहीं होती है। लालू राज में जिलों में तैनाती में प्रमोटी अधिकारियों को प्रमुखता मिलती थी। इसकी वजह थी कि जिस सामाजिक समूह को लालू जिलों में भेजना चाहते थे, उनकी संख्या काफी कम थी। इस कारण अधिकारियों को प्रमोट कर आईएएस या आईपीएफ बनाया जाता था और फिर उनकी तैनाती की जाती थी। लेकिन नीतीश राज तक आते-आते प्रशासनिक ढांचे का सामाजिक स्वरूप बदल चुका था। मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद बड़ी संख्या में पिछड़ी जाति के लोग भी आईएएस और आईपीएस बनने लगे थे। इस कारण लालू यादव के दौर का संकट समाप्त हो चुका था। फिर नीतीश का भाजपा के साथ गठबंधन था और दोनों व्यावहारिक रूप से प्रो-फारवर्ड रहे हैं। मंडल आयोग की वहज से सामाजिक ढांचे में फिट बैठने वाले अधिकारियों की संख्या बढ़ गयी है। इसलिए प्रमोटी के बजाये डायरेक्ट वालों को तरजीह मिलने लगी है।
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आरसीपी के अतिपिछड़ा राग का दर्द झेल रहे हैं जिला प्रभारी
जदयू के वरिष्ठ नेता व सांसद आरसीपी सिंह का अभी ‘अतिपिछड़ा राग’ चर्चा में है। जिलों में अतिपिछडों का सम्मेलन चल रहा है। इसका जिम्मा पार्टी के जिला प्रभारियों को सौंप दिया गया है। जिला प्रभारियों के समक्ष सबसे बड़ा काम अतिपिछड़ा सम्मेलन में भीड़ जुटाना है। यह काम श्रमसाध्य भी है और ‘धन साध्य’ भी। दूसरे जिले में प्रभारी बने नेता श्रम करने को तत्पर रहते हैं, लेकिन घर से पैसा फूंकें, इसके लिए तैयार नहीं दिखते हैं। जिले के विधायक और विभिन्न प्रकोष्ठों के पदाधिकारी भी अपनी आर्थिक सीमा से आगे जाने को तैयार नहीं हैं। लोकसभा चुनाव में पार्टी के संभावित उम्मीदवार भी सीट तय नहीं होने के कारण ‘मुट्ठी’ खोलने को तैयार नहीं हैं। वैसे में सभी सवालों का दर्द जिला प्रभारी झेलने को विवश हैं और कहते हैं कि पार्टी से अतिपिछड़ों का मोहभंग होने के दौर में अतिपिछड़ा सम्मेलन की सफलता कठिन हो रही है।