हमारे सम्पादक इर्शादुल हक को दिये साक्षात्कार में मुख्यमंत्री की इस स्वीकारोक्ति से नयी बहस की शुरूआत हो सकती है क्योंकि कुछ लोगों के लिए शराब स्टटस सिम्बल है तो चूहे खाने वालों पर कुछ लोगों की भवें क्यों तन जाती हैं?
दूसरी किस्त
बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को इस बात का गर्व है कि वह चूहे खाने वाले समुदाय से आते हैं. उनका कहना है कि शराब को एक तबका सोशल स्टेटस मानता हो तो चूहे परोसना कहां की बुराई है.
यह भी पढ़ें
‘दस पसेरी चावल के लिए गुलामी लिखवाना चाहते थे’
अपनी बेबाक बातचीत में बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने साफ कहा है कि मैं चूहे खाने वालों में से हूं लेकिन दुर्भाग्य है कि कुछ लोग इसे सामाजिक मान्यता देने से कतराते हैं. समाज का एक हिस्सा तो शराब को अपना स्टेटस सिम्बल मानता है पर जब चूहे की बात आती है तो कुछ लोग नांक-भौं चढ़ाने लगते हैं. आज कई वर्गों में शराब चाय की तरह परोसी जाती है जबकि इसमें कई तरह की सामाजिक बुराइयां छिपी हैं. वहीं दूसरी तरफ चूहे पारम्परिक आहार के रूप में एक वर्ग में इस्तेमाल किया जाता है फिर भी लोग इसे बुरी नजरों से देखते हैं.
मुख्यमंत्री ऐसी मान्यता को बदलने पर जोर देते हुए कहते हैं कि मुर्गी पालन, बकरी पालन की तरह चूहा पालन को भी बढ़ावा देने की जरूरत है.
मैंने मुख्यमंत्री से, वरिष्ठ आईएएस अधिकारी विजय प्रकाश का हवाला देते हुए पूछा था कि विजय प्रकाश इस बात पर जोर देते हैं कि चूहा पालन को व्यवसायिक स्वीकार्यता देने की जरूरत है क्योंकि चूहे के मांस में मुर्गा और खसी की तुलना में प्रोटीन का अनुपात काफी अधिक है. मेरे इस सवाल पर मुख्यमंत्री ने अपनी बात खुल कर रखी. उन्होंने कहा-
“मुझे नहीं मालूम कि चूहे के मांस में कितना प्रोटीन है. पर जब विजय प्रकाश जी ने यह बात कही थी तो मैंने महसूस किया था सांप का विष निकाल कर लोग कारोबार कर सकते हैं तो चूहे का शिकार करने वालों के लिए एक सिस्टेमेटिक बाजार क्यों नहीं उपलब्ध कराया जा सकता ? इससे हजारों लोगों के लिए आमदनी का स्रोत विसित किया जा सकता है. लेकिन हमारी सामाजिक मान्यता कुछ ऐसी है कि कुछ लोग इसे अच्छी नजरों से नहीं देखते”.
सवाल यह है कि महा दलित समुदाय के लोगों में खास कर मुसहर जाति के लोग सामंतवादी व्यस्था के शोषण के शिकार रहे हैं. जीवीकोपार्जन के लिए खेती या अन्य पारम्परिक संसाधन से इस तबके को वंचित रखा गया. जिसके कारण इस समुदाय के लोग खेतों में कटनी के बाद छूट गये ऐसे अनाज पर निर्भर करते रहे हैं जिन्हें चूहे अपने बिलों में रखते हैं. अनाज की तलाश के क्रम में उन्हें अनाज के साथ साथ चूहे को भी आहार के रूप में उपयोग करना पड़ता रहा है. लेकिन कभी भी चूहा खाने को इस व्यस्था ने अच्छी नजरों से नहीं देखा.
मुख्यमंत्री, चूंकि इसी मुसहर समाज से आते हैं इसलिए इस समाज के जमीनी यथार्थ को वह बखूबी समझते हैं. इन्हीं बातों के मद्देनजर मुख्यमंत्री कहते हैं- चूहे के मांस के बारे में समाज के बड़े हिस्सा का नजरिया दकियानूसी है. लोग इसे दकियानूसी नजरों से देखते हैं. खुद मुसहर समाज के कुछ लोगों का नजरिया भी चूहे खाने वालों को ठीक नहीं समझता.
चूहे का बाजार
मुख्यमंत्री अनपी बातें आगे बढ़ाते हुए कहते हैं-
“इसी तरह सुअर के मांस के बारे में भी कुछ लोगों का नजरिया घिसा-पिटा है लेकिन अब तो सुअर के मांस का भी वायापक बाजार बन चुका है .कुछ दिन पहले तक तो समाज का बड़ा हिस्सा मुर्गी पालन और उसके मांस को भी अछूत समझता था पर अब समाज इसे स्वीकार कर चुका है. ऐसे में चूहे के बाजार को व्यवस्थित करने की जरूरत है”.
वह कहते हैं कि आप टाल क्षेत्र में जाइए तो देखेंगे कि लोग चूहों का शिकार करने वालों से उनके चूहे औने-पौने में ले लेते हैं और उनकी मेहनत का उन्हें कोई खास लाभ नहीं मिलता. लेकिन अगर उनके लिए बाजार की व्यवस्था होती तो उन्हें इसमें व्यावसायिक रूप से लाभ होता और चूहा पालन व चूहे से जुड़े व्यवसाय का विकास होता.
साक्षात्कार का तीसरा और अंतिम किस्त कल