सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह बता रहे हैं कि भारतीय नौकरशाही में व्यस्थागत सुधार और नई रूह डालने के बजाये सरकार खुद ही यथास्थिति बनाये रख कर इसे डुबोने पर आमादा है.
हम बदलते समय के साथ नौकरशाही को चुस्त दुरुस्त बनाने के बदले इसे भारी भरकम और पेचीदा ही करते जा रहे हैं जहां जरूरत के बजाये हम इनके अनावश्यक बोझ को बढ़ा रहे हैं नतीजा यह है कि कामों के निपटारे सहुलत के बजाये इसमें जटिलता ही आती जाती है.
1978 तक केंद्र सरकार में मात्र 54 विभाग हुआ करते थे. 1993 आते-आते इसकी संख्या 70 तक पहुंच गई.जबकि आज की तारीख में सचिव स्तर के 450 अधिकारियों की भारी भरकम फौज है.
अब तो स्थिति इतनी दयनीय हो गई है कि पिछले कुछ दशक से ऑफिसर्स ऑन स्पेशल ड्यूटी जैसे पदों का सृजन भी होने लगा है. ऑफिसर्स ऑन स्पेशल ड्यूटी मिसाल अपनेआप में निराली है जिसकी न तो उपोयगिता है और न ही जरूरत.
सच पूछिए तो आफिसर्स ऑन स्पेशल ड्यूटी( ओएसडी) का अर्थ हो गया है ऑफिसर्स इन सर्च ऑफ ड्यूटी.
अब तो इस बात को खुद प्रधानमंत्री ने कई बार स्वीकरा किया है कि नौकरशाही, जो सरकार के डिलेवरी सिस्टम का मुख्य अंग मानी जाने वाली नौकरशाही पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है. इसके लिए खुद सरकार ही जिम्मेदार है.
1960 के दशक तक रिटायर होने की उम्र 55 वर्ष हुआ करती थी. इसके बाद इसे बढ़ा कर 58 वर्ष किया गया. फिर 60 वर्ष तक बढाया गया. अब तो सरकार ने बाजाब्ता अपने चहेते नौकरशाहों के लिए रिटायरमेंट के बाद के लिए भी एक विशेष कैटेगरी ही बना दी है जिसके जरिये कुछ नौकरशाह 60 वर्ष के बाद भी कई सालों तक पदों और अधिकारों का उपोयग करते हैं.
ऐसी स्थिति में ये नौकरशाह मंत्रियों को मिलने वाली सुविधाओं का आनंद लेते हैं. सच मानिये तो संघ लोकसेवा आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, केंद्रीय सूचना आयोग जैसे पद इसी लिये सृजित किये गये हैं.
इतना ही नहीं ऐसे पद राज्य सरकारों ने भी बना रखे हैं. सच्चाई यह है कि कुछ नौकरशाह अपनी खास योग्यता के बूते अपने आकाओं के लिए रिटायरमेंट के बाद भी महत्वपूर्ण बने रहते हैं.
यह आश्चर्य की बात है जो नौकरशाह अपनी तमाम उम्र में अपने विभाग के कामकाज में कुछ सुधार नहीं ला सका वह रिटायरमेंट के बाद कौन सा गुल खिला सकता है. सच तो यह है कि एक नौकरशाह जितना ही सीनियर होता जाता है वह उतना ही विलासितापूर्ण जीवन का आदी होता जाता है.
यह दुखद सचाचाई है कि रिटायरमेंट के बाद बड़े पदों पर बैठने वाले अक्सर वही नौकरशाह होते हैं जो अपने कार्यकाल में रीढ़विहीन होते हैं. हालांकि मुझे इस बात पर कोई आपत्ति नहीं कि कोई ऐसे पदों को स्वीकार करता है लेकिन हकीकत यह है कि ऐसी व्यस्था का निश्चित तौर पर खात्मा होना चाहिए.
मेरा मानना है कि सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिए कि जब कोई अधिकारी किसी सरकारी पद से रिटायर हो तो उसे किसी सार्वजनिक लाभ का पद नहीं दिया जाना चाहिए. आखिर ऐसे गैरजरूरी पदों से जनता की गाढ़ी कमाई का दोरोपयोग ही होता है.
इस संबंध में मुझे अपने एक मित्र की बाद याद आती है. मेरे एक रिटार्यड अधिकारी दोस्त ने बताया कि उसके मातहत काम करने वाले एक नौकरशाह की कार्यकुशलता औसत दर्जे की थी. इसलिए उनने उसके सीआर पर यह बात दर्ज कर दी. लेकिन इसके तुरत बाद उन्हें एक मंत्री का फोन आया कि उसके कार्यकुशलता को उत्तम लिखें. मजबूरी में हमारे मित्र को ठीक वैसा ही लिखना पड़ा. आखिर उन्हें शांति से जीने की जरूरत जो थी.
अब आप इसकी तुलना निजी क्षेत्र में काम करने वाले अधिकारियों से करें. अगर आपका मूल्यांकन उम्मीदों के अनुरूप नहीं है तो आप वहां अपनी नौकरी से हाथ धो लेंगे. लेकिन सरकारी क्षेत्र में आप कितने ही बुरे अधिकारी हों यह मायने नहीं रखता, सिर्फ आपको अपने आका को खुश करने का हुनर आना चाहिए. इतना ही नहीं सरकारी तंत्र में बिरादरीवाद अपनी जड़े इतनी गहराई तक फैला चुका है कि अकसर नौकरशाह इसे अपने लिए ढ़ाल के रूप में इस्तेमाल करते हैं.
सीबीआई के आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2011 तक केंद्र सरकार के पास भ्रष्टाचार के 474 मामलों पर कार्रवाई करने की अनुमित लंबित पड़ी है. यह उदाहरण हमारी व्यवस्था की सच्चाई बताता है कि हम कितने भ्रष्ट सिस्टम का हिस्सा हैं. यही वजह है कि ट्रांस्पिरेंसी इंटरनेशनल ने भारत को दुनिया के सबसे ज्यादा भ्रष्ट देशों में से एक बताया है.
यह तो सुप्रीम कोर्ट का भला हो जिसने हाल ही में इस मामले को गंभीरता से लेते हुए सरकार को आदेश दिया है कि वह ऐसे मामलों को तीन महीने से ज्यादा दिनों तक न लटकाये और जल्द से जल्द कार्वाई करने का आधार तैयार करे.
अब आने वाले समय में पता चलेगा कि सरकार इस पर कितना और कैसे अमल करती है. पर सच्चाई यह है कि जब खुद सरकार ही इस मामले में पहल नहीं करती तो अदालतों के आदेश या उसके भय से क्या परिवर्तन आयेगा, यह सोचने की जरूरत है.