इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया पर हर तरफ जे.एन.यू के लापता छात्र नज़ीब और उसकी रोती-बिलखती मां की चर्चा के बीच बहुत सारे लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि देश में लाखों बच्चे गायब हैं, लेकिन चर्चा सिर्फ नज़ीब की ही क्यों ?
ध्रूव गुप्त, रिटायर्ड आईपीएस अफसर
क्या इसके पीछे भी कोई राजनीति है ? बात बहुत हद तक सही है, लेकिन देश में रोज़ घटने वाले लाखों अपराधों की जानकारी और चर्चा क्या मीडिया के लिए भी संभव है ? छोटी जगहों पर और आम लोगों के साथ घटे अपराध ख़ुद उनके अपने गांव-शहर में ही अचर्चित रह जाते हैं। बड़े शहरों, बड़े संस्थानों और बड़े लोगों के जो अपराध होते हैं, चर्चा उन्हीं की होती है।
वाया सोशल मीडिया
उनके माध्यम से ही ऐसी घटनाओं के खिलाफ़ हमारी संवेदनाएं जगती हैं। जैसे दिल्ली का निर्भया बलात्कार काण्ड, जैसे रोहित वेमुला प्रकरण, जैसे बिहार के एक विधायक द्वारा नाबालिग लड़की का यौन शोषण, जैसे नज़ीब का लापता होना। जैसे निर्भया कांड के बाद देश की बलात्कार पीड़ित लड़कियों के प्रति हमारी हमदर्दी जगी थी,नज़ीब की गुमशुदगी के बाद जगी हमारी संवेदना का भी विस्तार होना चाहिए। एक नज़र हम देश के उन लाखों बच्चों पर भी डालें जो ग़ायब होने के बरसो बाद भी लौटकर घर नहीं आए।
जो आंकड़े बताते हैं
भारत सरकार के गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार अपने देश में हर साल एक लाख से ज्यादा बच्चे गायब हो रहे हैं। इस सदी में ही अबतक सत्रह लाख से ज्यादा बच्चे गायब हुए हैं जिनमें से पैतालीस प्रतिशत का अबतक कोई सुराग नहीं मिला है। खुद देश की राजधानी दिल्ली में ही तीन हज़ार से ज्यादा बच्चे गायब हैं। ज़ाहिर है कि ये बच्चे मानव तस्करों द्वारा कहीं न कहीं वेश्यावृति, भिखमंगी, बाल मजदूरी या घरेलू नौकरी के कामों में लगा दिए गए होंगे। कुछ की किडनियां और दूसरे अंग पैसों के लिए बेचे जा चुके होंगे .भीख मंगवाने के लिए भी कुछ अंधे और अपाहिज कर दिए गए होंगे।
प्रतिरोध करने पर कुछ मार भी डाले गए होंगे। उनकी भी तो माएं होंगी कहीं न कहीं ? कल्पना कीजिए ऐसी सभी मांओं की जिनकी उदास आंखें अपने बच्चों के इंतज़ार में अब तक पथरा गई होंगी। अभी नज़ीब की मां की जो तस्वीरें मीडिया में वायरल हो रही हैं, उसे हर उस मां की तस्वीर के तौर पर देखिए जो अपने बच्चों के बिछड़ने के सदमे के साथ ही जीने को अभिशप्त है। इन लापता बच्चों में सभी धर्मों और जातियों के बच्चे हैं। बड़े लोगों के बच्चे अगर एक दिन के लिए भी ग़ायब हो जायं तो सरकारें और पुलिस उनकी तलाश में ज़मीन-आसमान एक कर देती हैं। आदमी तो आदमी, उनकी भैंसें और कुत्ते भी कुछ ही घंटों के भीतर बरामद हो जाते हैं।
हताश मायें
सभी बच्चें इतने ख़ुशकिस्मत नहीं होते। सुप्रीम कोर्ट की कई फटकारों के बावजूद सरकार और पुलिस ने इन लाखों लापता बच्चों की तलाश का कभी कोई सार्थक और ईमानदार अभियान चलाया ही नहीं। शायद इसलिए कि इनमें लगभग सभी गरीब और लाचार मां-बाप की संतानें हैं जिनकी न सत्ता प्रतिष्ठानों तक कोई पहुंच है और न उनके पास इतने पैसे कि खोजने वाली पुलिस के पैरों को गति प्रदान करे। ऐसी ख़बरें मीडिया के लिए भी टी.आर.पी बटोरने में सक्षम नहीं होतीं। लोगों की भी दिलचस्पी आम लोगों की ख़बरों में आम तौर पर नहीं होती। अगर नज़ीब की विलखती मां के बहाने हमारी संवेदना जगी हैं तो आईए, हम नज़ीब की मां के साथ देश के तमाम लापता बच्चों की मांओं की भी आवाज़ बनें ! क्या पता हमारी थोड़ी कोशिशों से लाखों हताश मांओं में से कुछ के घरों में रोशनी और चेहरों पर रौनक लौट आए !