पंचायती राज में महिलाओं ने पचास प्रतिशत आरक्षण के बूते नुमाइंदगी के स्तर पर काफी कुछ हासिल किया है, पर क्या वे राजनीतिक रूप से सशक्त हुई हैं? एक आकलन.
डॉ. मीरा दत्त
आजादी के 66 साल बाद भी आम जनता की आजादी एक यक्ष प्रश्न बनी हुई है। क्योंकि आज भी देश में आम जनता बढ़ती बेकारी, गरीबी, भूखमरी, महंगाई, सांप्रदायिकता और विखंडता आदि का दंश झेल रही है। कहना नहीं होगा कि इन सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं ने देश में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार, भिन्न प्रकार के अपराध, दंगे-फसाद, महिलाओं पर हिंसा, जातीय हिंसा आगजनी, लूट-पाट, चोरी, डकैती, हत्या, देह-व्यापार, तस्करी, नशीली पदार्थों का व्यापार आदि को ही बढ़ाया है। संविधान निर्माता डा. भीम राव अम्बेडकर ने कहा था कि सामाजिक लोकतंत्र के अभाव में लोकतंत्र खोखला है। लोकतंत्र पंचायती राज की परिकल्पना करता है। अम्बेडकर की सोच थी कि इस राज में अपने लोगों के प्रति सम्मान और समानता की दृष्टिकोण के साथ सामाजिक संगठन कठोर सामाजिक बंधनो से मुक्त हो। ऐसे में पंचायती राज का आगमन आम जनता को स्वशासन के पथ पर ले जाने का एक मात्र राजनीतिक संस्था है। लेकिन इस पंचायती राज को अमली-जामा पहनाने में ही शासक वर्ग को करीब 45 वर्ष(1993 में) लग गये और पंचायती राज लागू होने के बावजूद अंग्रेजी डीएम, डीसी राज, एसडीओ, बीडीओ राज कायम रहा। आम जनता को शासन में निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार नहीं मिला। साथ ही सरकार पूर्व से भारी-भरकम, खर्चीली एवं जटिल प्रशासकीय प्रणाली और जटिल बनाकर ढो रही है। अब तो यह भ्रष्टाचार का अखाड़ा भी बन चुका है।
स्वायत्ता का छलावा
बिहार में पंचायती राज को जितने अधिकार मिले हैं वह स्वायत्ता का छलावा ही है। फिर भी इस पंचायती राज को बिहार में लाने के लिए जनता को कठिन संघर्ष करना पड़ा। तब कहीं जाकर पंचायती राज साल 2001 में अस्तित्व में आई। अधिनियंत्रित अथवा प्रशासक नियंत्रित पंचायती राज में आज स्त्री एवं पुरूष जनप्रतिनिधियांे को संघर्ष करना पड़ रहा है। यह तो तय है कि यदि हैसियत बढ़ाना है तो संघर्ष तो करना ही होगा।
पंचायती राज में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री अक्सर वाहवाही बटोरते हैं कि उन्होंने महिलाओं को सत्ता सौंपकर महिला सशक्तीकरण को आगे बढ़ाया है। एक सीमा तक आरक्षण की व्यवस्था करना सम्मानीय भी कहा जा सकता है। नीतीश कुमार ने यह भी कहा कि 50 फीसदी आरक्षण लाने में उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा। यही वजह कि चुनकर आ रही महिला प्रतिनिधि वास्तव में सशक्त नहीं हो पा रही हैं। अतः क्या व्यवहारिक रूप से सत्ता उनके हाथ में है? क्या वास्तविकता में वे निर्णय लेने को स्वतंत्रत हैं? इन बातों का जानने के लिए पहले तो हमें यह देखना होगा कि महिलायें कितने सीटों पर विजयी हुई।
बिहार सरकार ने त्रिस्तरीय पंचायती राज में महिलाओं के सशक्तीकरण के दृष्टिकोण से संविधन के 73वें संशोधन अध्निियम, 1992 के तहत 33 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ाकर साल 2006 में पचास प्रतिशत कर दिया। इस प्रणाली को जनवरी 2006 में एक अध्यादेश द्वारा लागू किया गया। इसके अमल में आने से राज्य में बिहार पंचायती राज अध्निियम, 1993 निरस्त हो गया।
इससे महिलाओं में खासा उत्साह देखने को मिला। महिलायें जिन्हें हजारों वर्षों से अपने घरों तक में निर्णय लेने एवं शासन करने का अधिकार प्राप्त नहीं था उन्हें घर से बाहर राजनीतिक रूप से शासन करने का सुनहरा अवसर मिला था। ऐसे में पंचायती राज चुनाव में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। बाकायदा घूंघट में रह कर भी उन्होंने चुनाव में शिरकत की। परिणाम बताते हैं कि जितनी सीटें आरक्षित थीं उससे अधिक सीटों पर वे चुनकर आईं। चाहे वह 2006 का चुनाव हो या पिफर 2011 का। आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि 2006 की तुलना में साल 2011 के चुनाव में तकरीबन सभी स्तर पर आरक्षित पदों से अधिक पर महिला प्रतिनिधि चुनकर आईं। यह परिणाम कहीं न कहीं उनके अंदर के काम करने की लालसा को दर्शाता है।
सामंती जकड़न
लेकिन जो सामंती जकड़न समाज में हजारों वर्ष से व्याप्त है उसने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। कहावत की तरह एमपी( मुखिया पति) और एसपी ( सरपंच पति) वाली बातें समाचारों में फैल गईं। महिला प्रतिनिधियों के नाम पर यह दोष मढ़ा जाने लगा कि वे अपनी जिम्मेदारी स्वयं न निभाकर अपने परिवार के पुरूष सदस्यों द्वारा कार्यों का संपादन करवाती हैं।
मीडिया में ये बातें प्रायः आने लगी कि उन्हें तो जिम्मेदारी निभाना आता ही नहीं, यहां तक कि वे बातें भी लोगों से नहीं करना चाहती हैं। लेकिन इस पुरूष प्रधान समाज में किसी ने भी घर के भीतर महिलाओं पर लागू होने वाले पितृसत्ता के कठोर शासन को नहीं देखा-जिसमें उन्हें जो कहा जाय वह आंख मूंदकर करना है। उनके सत्ता का दखल भी उनके पति ने कर रखा है। यदि वह उनकी बात नहीं मानती हैं तो उन्हें प्रताडि़त किया जाता, उनका चरित्र हनन किया जाता है। विडम्बना यह है कि महिला प्रतिनिधियों ने जब अपने परिवार के पुरूष सदस्य की पैरवी नहीं सुनने की जुर्रत की, तो उन्हेें जान तक गवानी पड़ी।
ऐसा प्रतीत होता है कि अभी भी पुरातन समाज जैसा परिवार ही औरतों के उत्पीड़न की सबसे बड़ी संस्था है। जन्म से पहले ही लड़कियां मार दी जाती हैं। इसलिए देश में लिंग अनुपात कम है। बल्कि 2011(914) में यह 2001( 927) की तुलना में और कम हो गई। खासकर, समृद्ध राज्य पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु में लिंग अनुपात कम हैं। अर्थात स्त्री जाति पर परिवार से ही हिंसा शुरू हो जाती है। इतना ही नहीं महिला जो समाज के करीब 60 फीसदी काम को करती इसकी गणना नहीं की जाती है, इन्हें बेकार, अनुत्पादक आदि माना जाता है। इसी पितृसत्ता विचारों से ओत-प्रोत पंचायती राज में प्रशासनिक अधिकारी भी मुखिया पति या स्त्री प्रतिनिधि के परिवार के किसी पुरूष सदस्य से बात कर उनकी मुश्किलें बढ़ाने पर तुले हैं।
मीडिया की भूमिका
व्यवस्था का चैथा स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया भी स्त्री प्रतिनिधियों की आलोचना या अवहेलना करने में आगे रहता है। परिवार में जो महिलायें मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकी हैं वे आखिर कहां तक इस पितृसत्तात्मक समाज के तिरस्कार से संघर्ष कर सकती हैं? आज पंचायतों की मुक्ति के लिए जब पुरूष प्रतिनिधियों को ही आन्दोलन करना पड़ रहा है ऐसे में महिला नेत्रियों को ज्यादा संघर्ष करने की चुनौती स्वभाविक है। वह संघर्ष कर भी रही हैं। समाज में जहां लोग वंश, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था से नियंत्रित हैं वहां महिलाओं को एक और संस्था पितृसत्ता का नियंत्रण झेलना पड़ता है। लेकिन फिर भी महिलायें पंचायती राज में हजारों साल से छीनी गई सशक्तीकरण तलाशने में जुटी हैं।
डॉ. मीरा दत्त पटना से प्रकाशित तलाश पत्रिका की सम्पादक हैं