पटना में ट्रैफिक की समस्या नासूर बन चुकी है. यह हम सबने महसूस किया है। इसपर भी सप्ताह में हर दूसरे-तीसरे दिन धरना और प्रदर्शनों की वजह से जाम में घंटे फँसे रहना आम बात हो गई हैtraffic1

अमित सिन्हा की रिपोर्ट

कल रविवार का था, सड़को पर लोगों की आवाजाही कम थी और किसी दल या संगठन ने सड़क पर धरना-प्रदर्शन भी नहीं किया था। बेहतर ट्रैफिक संचरण के लिए कोई प्राकृतिक अड़चन भी नहीं थी। फिर भी, दिन के 10 बजे से ही पटना जंक्शन पर बुरी तरह जाम लगा था। चिरैयाटांड फ्लाईओवर से जीपीओ गोलंबर तक जाने में अधिकतम समय की सभी संभावनाये फेल हो रही थी। पटना जंक्शन के आसपास का ट्रैफिक बंद पड़ा था। और साथ ही बंद पड़ा था, ट्रैफिक उच्चाधिकारियों का मोबाईल। अब रविवार की छुट्टी सिर्फ जनता के लिए तो है नही !!!

वैसे तो पटना की सभी सड़कों का हाल बताने की जरूरत नहीं है। ट्रैफिक सिग्नल बंद पड़े है। पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ और जेबरा क्रासिंग तक नहीं है। अतिक्रमण से सड़कें तंगहाल हैं।
परंतु बात राजनीति की नहीं कर्मनीति की है। सच्चाई यह है कि हमारा पूरा कार्य तंत्र बैठ चुका है। कर्तव्यहीन अधिकारियों पर सरकार की कोई पकड़ नहीं है।

पूरे देश में कहीं भी छोटे-से-छोटे शहर में भी यातायात संचालन और अतिक्रमण को लेकर निष्क्रियता की ऐसी बानगी नहीं मिलती. वर्तमान में पटना जंक्शन और कारगिल चौक(गांघी मैदान) जैसे प्रमुख चौराहों पर सैंकड़ो की संख्या में आटो मिलेंगे जिनकी दया पर ही सडक की चौड़ाई का 10-15 प्रतिशत यातायात के लिए दिया जाता है. अगर भूले-बिसरे प्रशासन कभी सख्ती भी करता है तो उच्चाधिकारियों के असहयोगपूर्ण रवैये के कारण उसे वापस होना पडता है। आखिर क्या कारण है इस असहयोग का? क्यों अकर्मण्य होता जा रहा है प्रशासन? क्या जनता नहीं चाहती एक व्यवस्थित शहर?

इन सवालों के उत्तर पाने के लिए किसी गहरी पड़ताल की जरूरत नहीं है। क्योंकि सर्वविदित है कि यह सारा मामला निचले स्तर के कांस्टेबल से लेकर उच्चाधिकारियों और मंत्री स्तर तक बंटने वाले भ्रष्टाचार के तंतुओ द्वारा निर्धारित होता है।

इसी बर्ष जब महिलाओं का एक प्रतिनिधिमंडल कई महीनों की मशक्कत के बाद मु्ख्यमंत्री से मिला तो उन्हें टका सा जबाब यह मिला कि “शहर को साफ रखना मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी नहीं है”। मीडिया में इस खबर को दबाया गया। खैर, अब आप यह सोचिए कि इस प्रकरण का कितना निगेटिव संदेश अधिकारियों में गया होगा। अब तो कोई कहीं भी शिकायत करे, इन अधिकारियों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

पटना निगम आयुक्त का हाल

पटना के सामान्य प्रशासन के हालात इस कदर खराब हैं की नित नये बदलते पटना नगर निगम आयुक्त को यह तक पता नहीं है कि हाईमास्ट लाईटों की मेंटेनेंस के लिए कौन जिम्मेदार है। पटना नगर निगम ने पिछले पाँच माह में तीन नये कमिशनर देखे हैं। नाम सार्वजनिक न किये जाने की शर्त पर नगर निगम के एक कर्मचारी ने बताया कि अप्रैल में पटना नगर निगम में कमिशनर बने आदेश तितरमारे(IAS, 2006) जान-बूझ कर लंबी छुट्टी पर चले गये जिससे प्रशासनिक विभाग से उनकी नोक-झोंक हुई, और फलतः उनका ट्रांसफर कर दिया गया। तितरमारे 100 दिन भी पटना नगर निगम में न टिक सके। सूत्रों के अनुसार निगम में बर्षों से जमे नीचे के अधिकारियों के असहयोग से उन्हे रोजाना दो-चार होना पड़ता था। जब हाईकोर्ट ने मार्च में उन्हे तलब कर भरी अदालत में फटकारा तो उनका धैर्य काफूर हो गया और उन्होने पलायन का मन बना लिया।

पिछले वर्ष पटना के प्रमुख बाजार “हथुआ मार्केट” के इर्द-गिर्द फैले व्यापक अतिक्रमण को लेकर प्रशासन की मुहिम को आम जनता और वैध दुकानदारों का भरपूर समर्थन मिला. परंतु 15-20 दिनों के सख्त रवैये के बाद प्रशासन की अचानक से हुई ढिलाई किसी “समझौते” की ओर स्पष्ट इशारा करती है. सूत्रों कि मानें तो अतिक्रमण के खिलाफ वह तात्कालिक कार्यवाई भी इसलिए हो सकी कि उस मुख्य सड़क पर एक बडे अधिकारी की पत्नी की गाड़ी जाम में घंटो फँसी रही और इस दौरान वह प्रशासन की अनुपस्थिति से काफी आहत हुईं।

बीते वित बर्ष की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि पटना के ट्रैफिक एसपी के सरकारी दौरे पर कई लाख रूपये खर्च हुए। इन सरकारी खर्चों पर यातायात अधीक्षक महोदय ने दिल्ली, उडीसा और तमाम राज्यों का दौरा किया। बड़ी-बड़ी मीटिंग में शिरकत की, घूमते रहे। ताकि वे बेहतर ट्रैफिक संचालन के गुण सीख सकें। परंतु इन सब के बीच आम जनता यह नहीं समझ पा रही कि बीच सडक पर अचानक रुक कर सवारी बिठाने वाले आटो चालकों पर लगाम लगाने के लिए भी क्या ऐसी महँगी ट्रेनिंगों की आवशयकता है?

By Editor


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