पटना नगर निगम का चुनाव कुल मिला कर शांतिपूर्वक सम्पन्न तो हो गया. पर एक वाक्य में कहें तो 75 वार्डों में सबसे चर्चित 52 वार्ड में गैंग वार की नौबत का ना आना सबसे बड़ी खबर है. लेकिन 7 जून, यानी परिणाम वाले दिन तक माहौल तनावपूर्ण रहेगा, ऐसी आशंका बनी रहेगी.

नौकरशाही डेस्क

3 जून से ले कर चार जून यानी वोटिंग के दिन तक छोटे मोटे दो टकराव नुमायां हुए है. ये दोनो टकराव निवर्तमान मेयर अफजल इमाम और उनके बाल मित्र रहे मुंतजिर आलम के समर्थकों के बीच हुआ. बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी. बढनी भी नहीं चाहिए लेकिन सब कुछ आपके सोचे मुताबिक हो, यह मुम्किन नहीं है. पूरे शहर के तमाम बूथों के बरअक्स वार्ड 52 के बूथों पर पुलिसकर्मियों की गहमागहमी कुछ ज्यादा ही थी. आलमगंज की संकरी गलियों के हर नुक्कड़ पर या तो अफजल या फिर मुंतजिर के समर्थकों का जमावड़ा लगा रहा.

 

 

इन गलियों का हर नुक्कड़ कम से कम तीन या चार रास्तों का मिलन बिंदु है. बेचारी पुलिस भी इन गलियों से कंफ्यूज दिखी. पुलिस वाले भीड़ देख कर इन गलियों की तरफ बढ़ते तो मिनटों में यहा जमावड़ा अलग-अलग गलियों में गुम हो जाता. दोपहर होते होते अफजल समर्थक एक नयी पहचान के साथ गलियों में आ धमके थे. गले में सफेद गमछी लगाये अफजल समर्थक अगर नरकट घाट की तरफ डटे थे तो मुंतजिर समर्थक काली बाबू की गलियों में डेरा डाले हुए थे.

यह अजीब इत्तेफाक है कि अफजल और मुंतिजर की पत्नियां ( महजबीं और रजिया सुलताना) चुनावी दंगल का हिस्सा थीं तो उनके पति( अफजल व मुंतजिर) बूथ मैनेजमेंट का दंगल संभाल रहे थे. यह तय है कि चुनावी जीत या हार महजबीं या रजियां सुलताना का हिस्सा होंगी तो यह भी तय है कि ईगो का टकराव अफजल व मंजितर के बीच पनपेगा. इसलिए यह उम्मीद करके  चलिए कि रिजल्ट के दिन यानी 7 जून तक दोनों के बीच की रंजिश सातेवें आसमान तक न पहुंचे.

 

पिछले पंद्रह सालों में अफजल राजनीतिक रूप से परिपक्व हुए हैं. आलमगंज के लोगों को उनसे कुछ ज्यादा ही उम्मीद है कि वह ईगो आधारित लड़ाई से खुद को बचा कर रखेंगे. उन्हें सियासत में लम्बार सफर तय करना है. वहीं दूसरी तरफ मुंतजिर के सामने राजनीतिक पैठ बनाने का अवसर है. आपसी वैमन्सय उनके करियर में ब्रेक लगाये, इसलिए उन्हें संय्यम से काम लेना होगा. संय्यम नहीं बरतने का साफ मतलब होगा कि आलमगंज 20 साल पहले के इतिहास की तरफ लौटेगा. तब गैंगवार जैसे हालात हुआ करते थे. मौजूदा दौर उस पुराने दौर को कत्तई नहीं स्वीकारेगा. राजनीति में अब बाहुबल का दौर नहीं रहा. बाहुबल के इतिहास को दोहराने का स्पष्ट मतलब है राजनीतिक पत्न को स्वीकार करना. लिहाजा इससे बचना होगा.

 

रही बात जीत हार की तो दोनों धड़ा अपनी-अपनी जीत के दावे तो करेंगे ही. वैसे परिणाम जो भी आये आने वाले दिनों में आलमगंज का माहौल जरा गर्म रहेगा. हालात न बिगड़े इसके लिए आलमगंज के बुद्धिजीवियों को आगे आने होगा. सुलह के रास्ते निकाले नहीं गये तो बुरा होगा.

 

By Editor


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