2014 समाप्त हुआ। नये साल की रंग गतिविधयां सफदर हाशमी शहादत समारोह के साथ शुरू हो चुकी हैं। जनवरी के दूसरे सप्ताह में अनिल मुखर्जी स्मृति समारोह भी प्रारंभ होगा। अगले साल की गतिविधियां की शुरूआत से पूर्व पिछले वर्ष की रंगगतिविधियों को दृष्टिगत करें तो दो-तीन प्रवृत्तियां प्रमुखता से उभर कर सामने आती हैं।
अनीश अंकुर, रंगकर्मी
ये प्रवृत्तियां पटना और बिहार के रंगमंच को समझने में हमारी मदद कर सकते हैं।
पिछले दो-तीन दशकों से पटना रंगमंच की विशेषता उसकी प्रयोगधर्मिता रही है। पटना रंगमंच को जानने-समझने वाले इस बात से वाकिफ रहे हैं कि पटना रंगमंच में ये प्रयोगधर्मिता दरअसल बिहार के सामाजिक-राजनैतिक स्वभाव के कारण आया है। जैसा कि सर्वविदित है कि बिहार हमेशा से कई किस्म के आंदोलनों, दर्शनों, विचारसरणियों की प्रयोगस्थली रहा है। इतने सारे आंदोलनों की मौजूदगी इस प्रांत में चलने वाली जद्दोजहद व छटपटाहट का प्रतीक भी है।
बुद्ध के समय से आज तक बिहार एक बेचैन प्रदेश रहा है। अपनी समाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों से बाहर आने की बेचैनी व छटपटाहट यहां के रंगमंच में भी दिखती है। यही कारण है कि पटना के रंगकर्मी विषयवस्तु से लेकर रंगयुक्तियों तक प्रयोग करने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना सके है। 1980 से लेकर 1990-91 के बीच बनने वाली नयी-नयी रंगसंस्थाओं के भरमार से इसे देखा जा सकता है।
चंदा का फंडा गायब
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से पटना रंगमंच के चरित्र में तेजी से परिवर्तन आता जा रहा है। अब पुरानी प्रयोधर्मिता यहां के रंगमंच की पहचान नहीं है। प्रयोग का स्थान अब प्रोजेक्ट ने ग्रहण कर लिया है। अपने समय व समाज की लड़ाइयों से जुड़ने का स्थान फंडिंग एजेंसियों से जुड़ाव ने ले लिया है। अधिकांश मंचित होने वाले नाटकों के चयन में केाई समाजी या सृजनात्मक चिंता के बजाए फंडिंग एजेंसियों की स्वीकृति प्रमुखता बन गयी है। एकाघ नाटकों केा छोड़ दें तो पिछले वर्ष मंचित होने वाले नाटकों में एक भी ऐसा नहीं है जिसने पटना के नागरिक समाज का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया हो। जितने नाटक कालिदास रंगालय या प्रेमचंद रंगशाला में मंचित हुए उनमें अधिकतर कहीं न कहीं से प्रायोजित थे। चंदा जमाकर, टिकट बेचकर, किया जाने वाला नाटक समाप्तप्राय है।
अब पटना में छह-सात ऐसी संस्थाएं हैं जो बजाप्ता रंगमंडल में तब्दील हो चुकी हैं। जहाॅं कई अभिनेताओं केा मासिक आमदनी होती है। एक हद तक ही सही लेकिन रंगकर्मी का एक समूह आर्थिक स्तर पर पहले की तुलना में थोड़ा सुरक्षित हुआ है। नाटकों का मंचन बढ़ा है। मात्रात्मक स्तर पर गतिविधियां बढ़ी हैं लेकिन गुणात्मक स्तर पर केाई प्रगति दृष्टिगत नहीं होता। आखिर इसके क्या कारण है? पटना रंगमंच ने क्या केाई ऐसा प्रमुख सवाल उठाया हो जिसकी नागरिक समाज में चर्चा हुई हो? आखिर क्या वजह है कि हमारा देष पिछले वर्ष इतने बड़े बदलाव से गुजरा उसकी कोई अभिव्यक्ति रंगमंच में क्यों नहीं सुनाई दी?
धर्मनिरपेक्ष पहचान पर प्रहार
पटना रंगमंच की अपनी धर्मनिरपेक्ष पहचान रही है लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जिस बड़े पैमाने पर समाज का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण दिखाई पड़ा उसके शिकार रंगकर्मियों का एक हिस्सा भी होता नजर आ रहा है। ऐसा क्यों हैं? इस पर गंभीरता से आपसी बातचीत होनी चाहिए। रंगकर्मियों के मध्य आपसी विचार-विमर्श की पटना में एक लंबी व सुदीर्घ परंपरा रही है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ये प्रवृत्ति देखने में आ रही है कि रंगमंच या समाज को होने वाली किसी बातचीत में रंगकर्मियों की भागीदारी बेहद कम होती जा रही है। नाट्य संस्थाओं के भीतर बहस-मुबाहिसे, पढ़ने-लिखने की परंपरा खत्म होती जा रही है। जब देश इतने बड़े वैचारिक व बौद्धिक संकट से गुजर रहा हो ऐसे में रंगकर्मियों का की खामोशी स्तब्धकारी है। जबकि कुछ साल पहले तक ऐसा न था।
इन्हीं रंगकर्मियों ने 2006-07 में भगत सिंह जन्मषताब्दी समारोह के अवसर पर पटना के 40 संगठनों केा एकजुट किया। पूरे वर्ष भर भगत सिंह की याद में आयोजन किए थे जिसकी श भर में चर्चा हुई थी।
विचारहीन दौर, कोई प्रतिवाद नहीं
पटना रंगकर्म अभी विचारहीन दौर से गुजरता मालूम पड़ता है। सिर्फ एक ही अफरा-तफरी दिखाई पड़ती है कि जैसे भी हो केंद्र व राज्य सरकार की चलने वाली अकादमियों से येन-केन प्रकारेण अनुदान हासिल किए जाएं। बाकी सारी चीजें गौण होती जा रही है। नाट्य महोत्सवों की संख्या बढ़ी है, लेकिन महोत्सवों केा लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं दिखता। वरिष्ट रंगकर्मी युवाओं के नाटक देखने नहीं आते, चारों तरफ संवादहीनता का आलम है। कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है चारों तरफ सहमति का आलम है। सभी एक दूसरे से इत्तेफाक रखते हैं। असहमतियां हैं भी तो व्यावहारिक तकाजों की वजह से सार्वजनिक नहीं की जाती।
संस्थाओं में आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो चुका है। पहले एक संस्था हुआ करती थी। संस्था के प्रति प्रतिबद्धता ही हमारी पहचान थी। अब फ्रीलांस रंगकर्मियों का जमाना है जो न तो किसी संस्था और न ही किसी विचार से जुड़े हैं। पहले वैचारिक या व्यक्तिगत मतभेद के कारण संस्थाएं टूटती बनती थी। इससे लगातार एक गहमागहमी बनी रहती। लेकिन अब एक ही संस्था के भीतर कई-कई संस्थाएं बन रही है। वजह ज्यादा से ज्यादा प्रोजेक्ट हासिल करना।
संस्थाओं के अंदर युवा रंगकर्मियों केा गोष्ठियों में जाने से संस्था का नेतृत्व उन्हें हतोत्साहित करता है। उन्हें कहा जाता है बौद्धिक गोष्ठियों में जाना वक्त बर्बाद करना है, तुम्हें कोई ‘इंटेलेक्चुअल’ थोड़े बनना है? इन सबसे क्या होगा? एक्टर बनना है तो इन चीजों से बचो। वैसे भी विचार से क्या पेट भरेगा? बेहतर है किसी प्रोजेक्ट की तलाष करो, वैसे भी तो मुंबई जाना है वहाॅं ये विचार-वगैरह से कुछ नहीं होगा।
जिस दिन युवा रंगकर्मी बातचीत में षामिल होगा वो संसथा के भीतर लोकतंत्र की बात करेगा, फंड के संचालन में हो रहे घपलों को उठाना प्रारंभ करेगा, नाटकों के चयन में दखल देगा, सामाजिक आवयष्कताओं के मुताबिक रंगमंच में रचनात्मक हस्तक्षेप की माॅंग उठाएगा। रंगमंच के बने बनाए फार्मूलों व चालू नुस्खों पर सवाल खड़े करेगा। इन सबसे बचने का सबसे बेहतर तरीका है इन्हें किसी भी ऐसी गतिविधि में षामिल होने से इन्हें हतोत्साहित करो। विचारहीनता का माहौल बड़े ही व्यवस्थित तरीके से बढ़ाया जा रहा है।
प्रयोग करने वाला पटना रंगमंच अब प्रोजेक्ट की तलाष में मुब्तिला है। रंगमंच में अब संकट बाहर के साथ-साथ भीतर से भी पैदा हो रहा है। रंगकर्मी आपस में मिल-बैठ, इस बड़े संकट से समाधान तो दूर की बात है, उस पर संवाद भी कायम करेंगे या नहीं यह नये साल में ली जाने वाली पहलकदमियों से पता चल पाएगा।