पत्रकार राजदेव नंदन की हत्या ने देश को झकझोर दिया है. सरकार, प्रशासन और समाज सब कटघरे में है पर यह उचित समय है कि इसका हिसाब हिंदुस्तान अखबार से भी लिया जाये.
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
बाहर की दुनिया के कम लोगों को पता है कि इस अखबार में काम करने वाले तहसीलों के पत्रकारोंं को गुलामों से भी बदतर हालत में जीने को मजबूर कर रखा है,
देश का हस संस्तान अपने इम्पलाइज के भविष्य, उसकी सुरक्षा उसकी आर्थिक समस्याओं का जिम्मेदार होता है पर हिंदुस्तान अखबार अपने पत्रकार के लिए क्या करता है यह सवाल जरूर बहस में लाया जाना चाहिए.
पत्रकारों का शोषण
भारत में इम्पलाइज का सर्वाधिक शोषण अगर कहीं होता है तो वह अखबारी घराने ही हैं. ऐसे में कुछ महत्वपूर्ण सवाल हिंदुस्तान के मालिकान से पूछा जाना चाहिए. इन सवालों में सबसे पहला सवाल तो यही है कि क्या हिंदुस्तान अखबार का मातृ संस्थान एचटी मीडिया और एचएमवी राजदेव रंजन को अपना इम्प्लाई भी मानता है या नहीं?
राजदेव रंजन पिछले डेढ़ देशक से भी ज्यादा समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं. हिंदुस्तान अखबार को यह बताना चाहिए कि क्या रंजन उसके इम्प्लाई थे? अगर वह इसके इम्पलाई थे तो उन्हें कितनी तन्ख्वाह दी जाती थी? हिंदुस्तान अखबार के मालिकों से पूछिए कि राजदेव रंजन का पदनाम क्या था?
ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि हिंदुस्तान अखबार के 60 प्रतिशत से ज्यादा पत्रकारों को नियुक्ति पत्र तक नहीं दिया जाता और जब नियुक्ति पत्र ही नहीं दिया जाता तो ऐसे में उसके पत्रकार यह साबित नहीं कर पाते कि वे उसके इम्प्लाई हैं.
राजदेव रंजन ने हिंदुस्तान अखबार की सेवा करते हुए अपनी जान गंवायी है. अखबार के प्रधान सम्पादक शशिशेखर ने जोश में आ कर एक विशेष सम्पादकीय प्रथम पेज पर लिखा और कहा कि राजदेव हम आपके लिए लड़ेंगे. आखिर राजदेव के लिए यह अखबार कौन सी लड़ाई लड़ रहा है उसे यह बताना चाहिए. उसे बताना चाहिए कि तहसीलों में काम करने वाले उसके पत्रकार को कितनी तन्ख्वाह दी जाती है. उसे बताना चाहिए कि क्या वह अपने तहसीलों, छोटे शहरों में काम करने वाले पत्रकारो को कौन सी सुविधा, कितना भत्ता देता है.
इस अखबार की सेवा में लगे ज्यादातर पत्रकारों के पास ऐसा कोई सबूत ही नहीं जिससे वे साबित कर सकें कि वे हिंदुस्तान के पूर्णकालिक इम्पलाईज हैं. अपनी जिंदगी का बेशकीमती हिस्सा हिंदुस्तान की सेवा में लगाने वाले इन पत्रकारों में से अगर किसी की हत्या हो जाती है तो एक नियोक्ता की हैसियत से अखबार की जिम्मेदारी होती है कि वह उसके परिवार की सहायता करे. ऐसे में हिंदुस्तान अखबार के मालिकों से यह पूछा जाना चाहिए कि उसने राजदेव रंजन की हत्या के बाद उनके परिजनों को कितनी आर्थिक सहायता की. अगर इन तमाम सवालों को आप हिंदुस्तान के मालिकों से पूछेंगे तो उनकी जुबानें बंद हो जायेंगी.
वो तो भला हो कि अखबार के अंदर काम कर रहे पत्रकारों ने अपने एक दिन का वेतन अपने साथी राजदेव रंजन के परिजनों को देने की घोषा की है. जबकि दूसरी तरफ अखबार के अंदर की हालत इतनी डरावानी और इतनी भयावह है कि कोई भी पत्रकार ऐसे मुद्दे को उठाने का साहस तक नहीं कर सकता. अगर कोई ऐसा साहस करे तो दूसरे ही पल उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा.
दर असल हिंदुस्तान ने पिछले दो दशक में ऐसी स्थितियां पैदा कर दी कि पत्रकार समाज की आवाज तो उठा सकते हैं लेकिन वे अपने दर्द और अपनी पीड़ा को खुद कभी नहीं उठा सकते. इसके लिए अखबार ने सबसे से पहले कम्पनी के अंदर पत्रकार युनियन को ही ध्वस्त कर दिया. ऐसे में पत्रकारों की हालत बीते युगों के मिल मजदूरों की तरह हो गयी है. पत्रकार राजदेव रंजन ने अपनी जान गंवा के इन सवालों को जिंदा कर दिया है. ऐसे में इन सवालों का जवाब हिंदुस्तान के मालिकान से लिया जाना चाहिए.