बिहार विधान सभा चुनाव का बिसात बिछ गया है। खिलाड़ी भी तैयार हैं। हरवे-हथियार में कोई किसी से कम नहीं हैं। सबके अपने-अपने दरबे हैं और दरबों में कैद दरबारी। सबको अपने अवसर का इंतजार है। इस चुनाव में एक बात तय हो गयी है कि विकास कोई मुद्दा नहीं है। चुनाव जाति के आधार पर ही लड़ा जाएगा।
नौकरशाही ब्यूरो
जाति में नया शब्द आ गया है ओबीसी। सरकारी भाषा में ‘अदर बैकवर्ड क्लास’ नाम दिया गया है। ओबीसी का संबंध क्रीमी लेयर से भी है। लेकिन राजनीति के लिए जिस ओबीसी की बात की जा रही है, वह एक जमात है। जातियों का समूह। इसमें कई जातियां हैं और क्रीमी लेयर कोई बाधा नहीं है। लेकिन वास्तव में बिहार की राजनीति में यह शब्द ही अप्रासंगिक है। बिहार की राजनीति में ओबीसी निरर्थक शब्द है। यहां पिछड़ा है, अतिपिछड़ा या अल्पसंख्यक है। मुसलमानों की कुछ जातियों को छोड़कर पिछड़ा, अतिपिछड़ा व अल्पसंख्यक सब के सब ओबीसी हैं। लेकिन आज सबकी राजनीतिक धारा एक नहीं है।
दरअसल बिहार के चुनाव में जातीय जनगणना के जातीय आंकड़े को छुपा लेना एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। राजद-जदयू गठबंधन इसकी आड़ में ओबीसी वोटों को अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है। बिहार में समाजवाद या सामाजिक न्याय के आंदोलन का जोर सवर्ण जातियों के विरोध पर टीका रहा है। आज फिर सवर्ण तबका भाजपा के साथ एकजुट दिख रहा है तो लालू व नीतीश पिछड़ा, अतिपिछड़ा और अल्पसंख्यकों की एक बार फिर गोलबंदी की तैयारी में जुट गए हैं। यही कारण है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जब नरेंद्र मोदी को पहला ओबीसी पीएम होने का दावा किया तो राजद प्रमुख लालू यादव ने तुरंत उसका जवाब दिया कि पहला ओबीसी पीएम देवगौड़ा थे, जिसे जनता दल ने बनवाया था। खैर, जातीयों के खेल विकास से जातीय गोलबंदी ही होनी है और यही पार्टियों का भविष्य भी तय करेगी।