प्रो. समिता सेन ने कहा कि घरेलू कामगारों में महिलायें पुरुषों की संख्या को पार कर गई है। बड़े पैमाने पर 10-11 साल की बच्चियाँ इस काम के लिये महानगर पहुँच या पहुँचायी जा रही है। इसमें एजेंसियों से ज्यादा अपनों का योगदान है। पलायन का यह स्वरूप औपनिवेशिक काल में कुछ और था-मसलन, परिवार का, अकेले पुरुष का और अकेली महिला का पलायन। इस काल में अकेली महिला का पलायन बिल्कुल अलग था। ये महिलायें आर्थिक रूप से ग्रामीण परिवार से लगभग गायब थीं। परिव्यक्ता, घरेलू हिंसा की शिकार या विधवा थीं। ग्रामीण संसाधनों तक इनकी पहुँच नहीं थी। इस अर्थ में ये श्रमजीवी थीं। शहरों में इन्हें घरेलू कामगार के रूप में जीविका मिली। लेकिन 1981 तक घरेलू कामकाज में पुरुषों का ही वर्चस्व था। 1991 के बाद स्थिति पलटी महिलाओं की संख्या पुरुषों को पार कर गई।
पश्चिम बंगाल के समकालीन संदर्भ में पलायन का इतिहास कुछ ऐसा ही है। प्रो. सेन ने उन घरेलू महिलाओं के बारे में प्रकाश डाला, जिनका पलायन 24 परगना से कोलकाता हुआ है। यह महिला पलायन का नये तरीके का एक हिस्सा है। इस पैटर्न का आश्चर्यजनक पहलू यह है कि यह अकेली महिला पलायन का रूप है, जो औपनिवेशिक काल के अकेला पुरुष पलायन के अनुरूप है। प्रो. समिता सेन ने जगजीवन राम संसदीय अध्ययन एवं राजनीतिक शोध संस्थान, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस तथा इतिहास विभाग, पटना विश्वविद्यालय द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित पलायन शृंखला के छठे व्याख्यान में ये बातें कही। व्याख्यान का विषय था- जेंडर और पलायन: एक उत्तर औपनिवेशिक दृष्टि।
इसके पहले संस्थान के निदेशक श्रीकांत ने विषय प्रवेश कराते हुए अतिथियों का स्वागत किया। प्रो0 पुष्पेंद ने कार्यक्रम का संचालन किया और अध्यक्षता डॉ0 अशोक अंशुमन ने की। धन्यवाद ज्ञापन डॉ0 वीणा सिंह ने किया। इस अवसर पर स्कूल कॉलेज के कई शिक्षक, पत्रकार एवं बुद्धिजीवी मौजूद थे।