भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय के कार्यभार संभालने के करीब 15 महीने बाद राज्य में लोकसभा की एक और विधानसभा की दो सीटों के लिए उपचुनाव हो रहा है। अपनी राजनीतिक कौशल और संगठन की ताकत दिखाने का उनके लिए यह पहला मौका था। उम्मीदवार के चयन से लेकर जीत तय करने की जिम्मेवारी प्रदेश अध्यक्ष की थी, लेकिन नित्यानंद राय अपनी पहली ही परीक्षा में फेल हो गये। यह उनकी राजनीतिक ही नहीं, बल्कि संगठनात्मक विफलता भी है।
वीरेंद्र यादव
बिहार में एनडीए कई पार्टियों का कुनबा है। चार पार्टियां इसमें पहले से थीं और अंतरात्मा जागने के बाद नीतीश कुमार का जदयू भी कुनबे में शामिल हो गया। नीतीश ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि उपचुनाव में पार्टी उम्मीदवार नहीं देगी। अररिया लोकसभा और भभुआ विधानसभा पर भाजपा का स्वाभाविक दावा बनता था, क्योंकि पिछले चुनावों में इन दोनों सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार थे। मामला उलझ रहा था जहानाबाद विधानसभा सीट पर।
पिछले विधानसभा चुनाव में इस सीट पर उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा ने उम्मीदवार दिया था। इस कारण स्वाभाविक दावा रालोसपा का बनता था। लेकिन रालोसपा में गुटबाजी के बाद उपेंद्र कुशवाहा व अरुण कुमार बीच मतभेद के कारण रालोसपा ने अपना दावा छोड़ दिया। अरुण कुमार अपने भाई को जीतनराम मांझी की पार्टी हम से उम्मीदवार बनाना चाहते थे। लेकिन जहानाबाद का भूमिहार लॉबी इसके पक्ष में नहीं था। इस कारण मांझी के हाथ से भी सीट निकल गयी।
भाजपा उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी को ‘भरोसे का साथी’ का साथी नहीं मान रही है। लेकिन नित्यानंद राय अपने कार्यकाल में एक भी ऐसा नेता या कार्यकर्ता नहीं खड़ा कर पाये, जो विधान सभा चुनाव लड़ सके। केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष नित्यानंद राय एक भी चुनाव जीतने लायक भाजपा उम्मीदवार के नाम की चर्चा भी मजबूती से नहीं कर सके। इससे नाराज केंद्रीय नेतृत्व में नीतीश कुमार से बातचीत की और नीतीश ने उम्मीदवार देने पर सहमति जता दी। इसके बाद नित्यानंद राय ने नीतीश कुमार की पार्टी जदयू से उम्मीदवार देने का आग्रह किया। अंतिम क्षण में जदयू ने अपने पूर्व विधायक अभिमार शर्मा को चुनाव में उम्मीदवार बनाने की घोषणा की। 2010 में जहानाबाद से विधायक रहे अभिराम शर्मा को जदयू ने 2015 को बेटिकट कर दिया था।
उपचुनाव में राजद जीते या जदयू, यह जातीय समीकरणों पर निर्भर करेगा। लेकिन इतना तय है भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय ‘जहानाबाद के मैदान’ में हार गये हैं। नेतृत्व के स्तर ही नहीं, बल्कि संगठन के स्तर पर भी उनकी विफलता मानी जाएगी। यदि जदयू और गठबंधन के प्रति इतनी ही निष्ठा थी तो शुरू में ही जहानाबाद सीट जदयू के छोड़ देते तो यह हास्यास्पद स्थिति की नौबत नहीं आती।