कभी-कभी सोचती हूं कि मैं ऐसे युग में सांस ले रही हूं जब अंतरधार्मिक संबंधों के बारे में कुछ मुट्ठी भर लोगों ने इतना ज़हर कैसे भर दिया ? फिर सोचती हूं, समूचे देश में नहीं, हां, कुछ धार्मिक संगठनों से जुड़े लोग नहीं चाहते कि इस देश में मानवता आम हो.
तबस्सुम फ़ातिमा
राजकुमार हीरानी की फिल्म पी.के मजहबी आडम्बरों के इसी रूप पर आघात करती है. और शायद ही वजह है कि इन दिनों इस पर हंगामा मच रहा है और आमिर खा़न को सज़ा दिये जाने की बात हो रही है. ये लोग, यह भी भूल जाते हैं कि कोई भी फिल्म डायरेक्टर व प्रोड्युसर की होती है. हीरो तो केवल अपनी भूमिका अदा करता है.
यह फिल्म राजकुमार हीरानी के 5 वर्षों की सोच का नतीजा है.
मुन्ना भाई, थ्री ईडियट्स के बाद एक ऐसी फिल्म लेकर आना जो आज आलमी सतह पर इंसानियत का पैग़ाम देती हो, यह काम सिर्फ नयी नस्ल ही कर सकती है. हीरानी इस नई नस्ल के प्रतीक हैं, जिनहोंने आलमी सतह पर लड़ते हुए यहूदी, ईसाई, मुसलमान और हिंदुओं को देखा तो सोचा, भगवान ठप्पे कहां लगाता है? पैदा होने पर कोई तो ठप्पा होगा कि यह आदमी यहूदी है या यह आदमी हिंदू या मुसलमान?
लेकिन भगवान ठप्पे लगाकर नहीं भेजता।
हम जिस मज़हब में पैदा होते हैं, उसी मज़हब के हो कर रह जाते हैं. फिर मज़हब बेचने वाले दलाल आ जाते हैं. फि़ल्म पी.के की सबसे बड़ी बात है, कि इंसानियत का पैग़ाम किसी इंसान द्वारा नहीं दिया गया, एक एलियन द्वारा दिया गया, जो किसी दूसरे ग्रह से आया है. पी.के यानी आमिर खान.
वह हमारी दुनिया में धर्म के पाखंड को देख रहा है और उस इंसानियत को तलाश करने की कोशिश कर रहा है, जो हमारे बीच से ख़त्म हो चुकी है. मज़हब रह गया है, इंसान होने का एहसास चला गया. अपने ग्रह पर लौटते हुए वह मुहब्बत, इंसानियत के साथ कई गहरे सवाल छोड़ जाता है, ऐसे सवाल जिनको तलाश करना अब पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी हो गया है.
‘पी.के’ पर उठे हंगामों ने हमारी इंसानियत की पोल खोल दी है. धर्म और हिंसा की गूंज-अनुगूंज में इंसानियत कहीं दूर चली गई है. पीके तमाम मजहबों में फैलेी कुरीतियों पर सवाल खड़े करती है. डर इस बात का है कि आने वाले समय में कट्टरवाद से लोहा लेने के लिये शायद इस तरह की फि़ल्में बनाने का साहस ही न किया जाये. इसलिये ज़रूरी है कि इंसानियत के समर्थन में सारा देश उठे. हीरानी और आमिर खान का पक्ष ले. कट्टरवाद से मिलकर लड़ना अब सबके लिये एक चैलेंज है और जरूत भी.
तबस्सुम फ़ातिमा ने जामिया मीलिया से मनोविज्ञान में एमए किया. टेलिविजन प्रोड्युसर और फ्रीलांस राइटर के रूप में पहचान बनानायी. अबत तक 100 से ज्यादा डॉक्युमेंटरी और 10 सीरियल पूरे. उर्दू शायरी में दखल रखने वाली तबस्सुम महिला अधिकारों के प्रति काफी संवेदनशील हैं. फिलहाल दिल्ली में रहती हैं.
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