उत्तर प्रदेश के अयोध्या में आरएसएस की एक इकाई बजरंग दल के कार्यकर्ताओं द्वारा शस्त्र प्रशिक्षण शिविर लगाये जाने की खबरें आई हैं जिसके पीछे प्रशिक्षण शिविर के आयोजकों का तर्क ये है की हिंदुओं की आत्मरक्षा के लिए ये प्रशिक्षण दिया जा रहा है.
फर्रह शाकेब
सवाल ये है की देश के 80 प्रतिशत हिंदुओं को आखिर किस्से रक्षा की ज़रूरत है ?
इन बातों पर विस्तार से आगे बढ़ने के पूर्व वैश्विक इतिहास के कुछ पन्नों को पलटना आवशयक है।
1979 में सोवियत संघ की सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में घुसना शुरू किया था तो वहाँ कई कट्टरपन्थी संगठन अस्तित्व में आये जिनका उद्देश्य उस समय कम्युनिस्टों को खदेडना था. तब जेनरल ज़ियाउलहक़ सत्ता में थे जिन्होंने कम्युनिस्टों और सोवियत संघ के विरुद्ध हथियार उठाये कट्टरपंथी संगठनों को हर सम्भव् सहायता की. लेकिन उसका नतीजा क्या हुआ. अब हालात सामने हैं.
और दूसरी तरफ़ अमेरिका और उसके गुर्गे भी सोवियत संघ के विरुद्ध अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में अपने स्वार्थ तलाश कर रहे थे जिस कारण उन्होंने भी इन कट्टरपंथी संगठनों को धरातल पर खड़ा करने और उन्हें नैतिक आर्थिक बल देने में महत्व्पूर्ण भूमिका निभाई. और रूस अब दुबारा अमेरिका को न सिर्फ़ टक्कर दे रहा है बल्कि अमेरिका का एक विकल्प भी दुनिया के सामने पेश किया है जो सीरिया युद्ध मे बखूबी देखने मे नज़र आ रहा है. उस समय भी अपनी सुपर पावर की छवि बचाए रखने के लिए सोवियत संघ अपने हर सम्भव संसाधन अफ़ग़ानिस्तान में झोंक चुका था.
अफगानिस्तान का सबक
अफ़ग़ानिस्तान में संघर्षरत कई कट्टरपन्थी संगठनों में से गुलबुद्दीन हिकमत यार के नेतृत्व वाली हिज़्ब ए इस्लामी सबसे प्रभावशाली था जिसे सबसे अधिक पाकिस्तानी और अमेरिकी सहायता प्राप्त थी और उसने अन्य सभी संगठनों के साथ एक दूसरे के नैतिक सहयोग से सोवियत संघ की सेना के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष किया और अंत में फ़रवरी 1989 में सोवियत संघ की सेना को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलना पड़ा.
उसके बाद होना ये चाहिए था के सभी संगठन मिल जुल कर आगे बढ़ते और इस्लामी सत्ता की स्थापना के पूर्व निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति ले लिए एक विज़न और ब्लू प्रिंट के ऊपर काम शुरू किया जाता लेकिन ये सभी आपसी वर्चस्व और सोवियत सेना के निष्कासन के पश्चात स्थापित हुई नजीब की सत्ता के विरुद्ध संघर्ष में शामिल हो गए और इस्लामी हुकूमत की स्थापना का जो लक्ष्य निर्धारित था वो अब कहीं नही है बल्कि केवल अफ़ग़ानिस्तान और पकिस्तान की आम जनता का लहू और उनके आशियानों के खण्डहर इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बना रहे हैं.
भारत की हालत भी बेकाबू न हो जाये
इन बातों की चर्चा यहां इसलिए आवशयक थी के पहले किस तरह इन देशों में धार्मिक कट्टरपंथियों को अपनी जडें मज़बूत करने का अवसर उपलब्ध करवाया गया और एक समय ये है की अब ये बेकाबू हो चुकी हैं और इन पर नियंत्रण वैश्विक शान्ति के प्रयासों और इस दिशा में चिंतन करने वालों के लिए एक चुनौती बन गया है.
यही स्तिथि पिछले कई दशकों से हिन्दुस्तान में अंदर सामने आ रही है जब धार्मिक उन्मादी आतंकी संगठन अपने हिन्दू राष्ट्र के निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने के लिए क़ानून सत्ता और शान्ति सद्भाव के लिए एक बड़ी समस्या बन चुकी हैं और आधारहीन तथ्यों की आड़ में देश में अराजकता का वातावरण और धार्मिक द्वेष और उन्माद की भट्ठी गर्म रखना चाहती हैं.
धार्मिक उन्माद की अफीम
सोने पर सुहागा ये है की जनता की आँखों में पूरी मक्कारी और धूर्तता के साथ धूल झोंक कर इन संगठनों ने देश पर अपना राजनितिक वर्चस्व भी स्थापित कर लिया है और प्रत्यक्ष रूप से इस सत्ता के संरक्षण में कभी किसी निर्दोष को बीफ़ खाने के नाम पर एक उन्मादी भीड़ मौत के हवाले कर रही है.कभी विश्वविद्यालयों को निशाना बनाया जा रहा है, कभी अपने हिंसक सांस्कृतिक देशप्रेम को ढाल बना कर तर्कशील और सामाजिक समानता और सद्भाव के पक्षधर छात्रों को देशद्रोही कह कर मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है. कभी किसी नाबालिग़ पशु व्यापारी को क़ानून और प्रशासन को ठेंगा दिखाते हुए मार कर पेड़ पर लटका दिया जा रहा है. सबसे आश्चर्यजनक ये है की देश के बहुसंख्यक समाज को और विशेषकर उसके युवाओँ को धार्मिक उन्माद और नफ़रत की अफीम चटा कर हिंसा के लिए उकसाया जा रहा है.
ताज़ा मामला अयोध्या का है और इसके बाद बजरँग दल के कर्ताधर्ताओं ने सुलतानपुर,गोरखपुर, पीलीभीत, नोएडा, कानपुर, और फतेहपुर के अलावा अन्य कई स्थानों पर ऐसे प्रशिक्षण शिविर लगाने की घोषणा की है.देश का दुर्भाग्य ये है की इन शस्त्र प्रशिक्षण शिविरों में पुलिस के पूर्व अधिकारी तक शामिल हो कर प्रशिक्षण दे रहे हैं और युवाओँ को पुलिस से बचने और उनसे निपटने की ट्रेनिंग दे रहे हैं यानी कानून की धज्जी उड़ाने की ट्रेनिंग की ज़िम्मेदारी उन्होंने ली है जिन पर कभी कानून के निर्वहन और पालन की ज़िम्मेदारी थी. अंदाज़ा लगाना सहज है की इस मानसिकता के साथ उन्होंने उस समय कानून का किस हद तक पालन किया होगा.
इन फासीवादी ताक़तों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखना होगा तभी ये देश बचेगा और भारत एक रह पायेगा वर्ना अफ़ग़ानिस्तान और पकिस्तान का हश्र हमारे सामने है