देश जानना चाहता है कि  भारत  का मीडिया बताये कि पेशावर का कत्ले आम आपकी खबर है  जिस पर आप गरजते हैं  पर असम के  बोडो आतंकी आदिबासी भाइयों का कत्लेआम करते हैं तो आप के जिस्म में हकत तक क्यों नहीं होती?asam,

मुकेश कुमार

में कौन सा देश दिखाया-बताया-सुनाया जाता है? आखिर कौन से देश की बात होती है? यह किसका देश है? और क्या जानना चाहती है? और किससे? मीडिया के मानचित्रानुसार इस देश की सीमा में कौन लोग रहते है? मीडिया के इस नेशन में कौन सा हिस्सा ज्यादा महत्वपूर्ण है?

क्या यह नहीं है कि नेशन नहीं जानना चाहता है, बल्कि सिर्फ मीडिया अपना एजेंडा थोपना चाहती है।  अगर ऐसा नहीं है तो पेशावर हत्याकांड पर जितना विलाप प्राइम टाइम में मचाया गया, उतना विलाप  असम में हुए भारतीयों के हत्याकांड पर क्यों नहीं किया गया?

मुख्यधारा के मीडिया ने जितना कागज़ पेशावर की ख़बरों से रंगा उतना ही खून असम की ख़बरों में क्यों नहीं दिखा? पेशावर के लिए न्यूज रूम में रुदन-क्रंदन मचाने वाले लोग क्यों नहीं आसाम के लिए यह संवेदना जाहिर कर पातें हैं? सोशल मीडिया पर भी पेशावर को लेकर जितने भावुक लगे, उतने आसाम को लेकर नहीं? क्यों पेशावर हत्याकांड के विरोध को लेकर लोगों ने अपनी सोशल प्रोफाइल तस्वीरों की जगह काला चिन्ह लगाया, वही व्यक्ति असम हत्याकांड पर यह काम नहीं करता? आखिर क्यों पेशावर हत्याकांड को लेकर जगह-जगह मोमबत्ती लेकर लोग दुखी दिखाई देते हैं? वही लोग असम को लेकर क्यों नहीं करतें?

 

 बाजारू मीडिया, घरियाली आंसू

दरअसल मीडिया पाकिस्तान के मुद्दे को बेचता है। वो भारत में मुस्लिम विरोधी मानसिकताओं को उभार कर, फिर उसको इस्लाम से जोड़कर एक धर्म के विरोध में खड़ा कर बेचता है। यही उसकी टी.आर.पी. बटोरता है और आजकल मीडिया वही समाचार दिखाता-बताता है, जो टी.आर.पी.बनाए जिसका सीधा संबंध सत्ता/बाजार से है।

पेशावर में जो कुछ भी हैवानियत की गई, वो सचमुच कायराना हरकत थी, मानवता इस तरह के दरिंदगी को सही नहीं ठहरा सकती। अगर भारतीय मीडिया में पाकिस्तान के इस बर्बरता पूर्ण कार्य को खबरों में प्रमुखता दी तो यह जायज कहा जा सकता है। परन्तु दूसरी तरफ भारत के सीमा के अन्दर आसाम में बोडोलैंड के पृथकतावादी आतंकवादियों ने जब लोगों को मारा तो यही भारतीय मीडिया ने ‘नेशन वान्ट्स टू नो’ का सवाल खड़ा नहीं किया। मीडिया के चरित्र पर प्रश्नचिन्ह और संदेह उभरने लगता है कि पेशावर को असम की तरह तरजीह न देने की वजह क्या रही होगी? क्या यह पाकिस्तान विरोधी मुस्लिम मानसिकताओं के बहाने इस्लाम को निशाना बनाना तो नहीं चाहती है? या पेशावर की दूरी दिल्ली से आसाम की तुलना में कम होना इसका मुख्य वजह रही ? जैसा राजदीप सरदेसाई का मानना है।

पेशावर की हिंसा में मुसलमान, असम की हिंसा में हिंदू क्यों नहीं? 
आखिर क्यों भारतीय मीडिया पाकिस्तान को असफल राष्ट्र के रूप में इस्लाम को केद्र में रखना चाहता है? अगर पाकिस्तान में यह हिंसा इस्लाम के कारण हुआ है तो फिर असम के हिंसा के केंद्र में हिन्दू क्यों नहीं हैं? यह देश को चीख-चीख कर कोई क्यों नहीं बताता कि पेशावर पर जितना तानने की जरुरत थी, उससे कम तानने की जरुरत आसाम को लेकर नहीं थी, फिर भी उतनी संवेदनशीलता के साथ यह नहीं उठाया गया। आखिर क्यों पाकिस्तानी हॉकी खिलाडि़यों की अभद्रता की खबर को पहली खबर बनाया जाता है और आसाम में मरने वालों की खबर वो जगह नहीं ले पाती। क्या जरुरी है यह विवेकाधिकार संपादकों का होता है और होना भी चाहिए, परन्तु यह तटस्थ, निष्पक्ष होना चाहिए,  न कि अपने एजेंडा को सिद्ध करने के लिए।
अमेरिकी लेखक आर्थर मिलर का मानना था कि एक अच्छा अखबार वह है, जिसमें देश खुद से बातें करता हो। परन्तु मुख्यधारा के मीडिया को देखने से लगता है कि यह मीडिया के नेशन का मतलब सत्ता और उसके एजेंडा के आगे अपना दुम हिलाना।

 पेशावर नजदीक, असम दूर
भारतीय मुख्यधारा के मीडिया में पूर्वोतर की खबरें नहीं आ पाती है। कुछ समय पहले जब बोडोलैंड में सांप्रदायिक हिंसा अपने चरम पर था, तब भी यह संवेदनशील रिपोर्टिंग का कोई आधार नहीं बन सका। पूर्वोत्तर की खबरें मीडिया के नेशन नामक भौगोलिक परिधि में नहीं आतें हैं। परन्तु पेशावर, नेशन में आ जाता है। यही मीडिया को दोगलापन उभर के सामने आता है। पाकिस्तानी हिंसा को अगर गलत मानते हुए राष्ट्र की विफलता और असफल राज्य तक करार देते हैं तो यही तर्क आसाम में हुए हिंसा पर क्यों नहीं लागू करते हैं। राजदीप सरदेसाई बताते हैं कि पूर्वोत्तर में कहीं टेलीविजन दर्शक मीटर बक्से नहीं हैं तो वहां की खबरें को कभी उचित जगह नहीं मिलती।  यह तर्क कहीं से भी तार्किक नहीं माना जा सकता है। इसका मतलब यही है कि सत्ता या बाजार जो चाहे अपने अनुसार वैसा ही समाचार-विचार के लिए कम करवा सकती है। दरअसल मीडिया के इस नेशन में कभी पूर्वोत्तर भारत के हिस्सा अपना स्थान पा ही नहीं सका है।

खबरों से इस हिस्सा का गायब होना यही बताता है कि मीडिया सिर्फ और सिर्फ अपने एजेंडा निर्मित करता है। यह 2014 के चुनाव से साबित भी कर दिया कि किस तरह मीडिया के सहयोग से भी चुनावी जंग लड़ी और जीती जाती है। यह एक रोचक पहलू है कि हिंदी चैनल के इतर भाग में भाजपा का कोई प्रभावशाली लक्षण देखने को नहीं मिलतें हैं।
यह और भी खतरनाक आयामों की तरफ जाने लगा है। जब चौकीदार ही खुद चोरी करने लगे तो यही माना जा सकता है। मीडिया के मोदी चारण काल में मीडिया को झुकने को कहा गया तो मीडिया उसके तलवे चाटने लगी। यह पत्रकारिता के सेल्फी दौर में प्रवेश से समझा जा सकता है। जंहा पत्रकारों को अपने जनसरोकारों के सवालों से लैस होना था, वहीं वो अपनी सेल्फी के लिए बैचेन दिखे। इन पत्रकारों को जनसरोकारों की पक्षधरता होना चाहिए था, परन्तु यह नई पूंजी और राजसत्ता के पक्षधर होते दिख रहें हैं। सुभाष चंद्रा द्वारा कमल चुनाव चिन्ह के साथ हरियाणा विधानसभा चुनाव में नजर आते हैं और दूसरी तरफ नवीन जिंदल के हारने पर चौधरी द्वारा एक स्पेशल पैकेज बनाकर समाचार दिखाना यह सच साबित करता है कि चुनावी जंग मीडिया ही तय करती है।

 

रजत शर्मा ने आप की अदालत के एक विशेष शो में जिस तरह के संकेत दिए वो बताता है कि गठजोड़ किस स्तर तक जा पहुंचा है। तनु शर्मा जैसे लोग मुगालते में नहीं रहें कि -कोई करोड़ो दर्शकों से पूछे कि उन्हें न्याय दिलाने के लिए न्यूज चैनल(ल्स) कैसे दिन-रात लड़तें हैं-  का दावा करने वाले रजत शर्मा जैसे लोगों से न्याय मिल सकेगा। एक तरफ पूरी दुनिया के लिए लड़ने का दावा करने वाले लोग जब अपने बंद हुए P7 के मालिक के खिलाफ लड़ने जाते हैं तो उस लड़ाई में कोई और मीडिया चैनल क्यों नहीं आता है? क्या वह इस लिए कि पत्रिका ने उद्घाटन में गडकरी आए थे।
मुकेश कुमार पंजाब विश्वविद्यालय में मीडिया रिसर्च स्कालर हैं। उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है।

By Editor


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