2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के लिए कांग्रेस ने अपने अंदर झाड़-पोछ शुरु कर दी है। बिहार प्रदेश कांग्रेस की सभी कमेटियों को भंग कर दिया गया है। कभी बिहार में कांग्रेस के जलवे हुआ करते थे। बिहार कांग्रेस शासित प्रदेश था, श्री कृष्ण बाबू से लेकर जगन्नाथ मिश्रा जैसे नेता कांग्रेस की परंपरा में बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर मजबूत नेतृत्व देने में सक्षम थे। अब वही कांग्रेस बिहार में पिछले दो दशक से उन दलों की पिछलग्गू बनी हुई है, जिनके नेताओं ने कांग्रेस की मुखालफत करके बिहार की राजनीति में अपना कद ऊंचा किया है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या प्रदेश कांग्रेस कमेटियों को भंग करके नई कमेटी गठित करने मात्र से कांग्रेस, बिहार की राजनीति में अपना पुराना दर्जा हासिल कर पाएगी ?

 अनिता गौतम

 

सही मायने में देखा जाये तो कांग्रेस ने पिछले दो दशक से बिहार में अपनी पैठ मजबूत करने के लिए ईमानदार कोशिश नहीं की है। बिहार की राजनीति में लालू के उत्थान के बाद कांग्रेस सतत कमजोर होती चली गई। पिछले दो दशक में केंद्र में कांग्रेस की सरकार तो बनती-बिगड़ती रही, लेकिन बिहार की तरफ केंद्रीय नेतृत्व ने कभी ध्यान नहीं दिया। संगठन को मजबूत करने के बजाय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी उन गैर कांग्रेसी धड़ों को केंद्र की राजनीति में संतुलन बनाये रखने के लिए अपने साथ लेकर चलती रहीं, जिनका विकास बिहार में कांग्रेस विरोध के फलस्वरूप हुआ था। सोनिया गांधी की यह नीति बिहार में कांग्रेस के लिए कब्रगाह साबित हुई।

 

यहां तमाम कांग्रेसी नेताओं को खुद पर ही विश्वास नहीं रहा, सोनिया गांधी के हुक्म की मुखालफत करने की जुर्रत किसी भी नेता में नहीं थी। कुछ नेताओं ने समय-समय पर दबी जुबान से अपनी बात कांग्रेस प्रमुख तक पहुंचाने की कोशिश की लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। कुछ गलती बिहार के कांग्रेसी नेताओं की भी है। बिहार के हितों पर अड़ने वाला कोई मुखर नेतृत्व कांग्रेस में कभी सामने नहीं आया। कहा जा सकता है कि बिहार में कांग्रेस नेतृत्व के अभाव से जूझता रहा। बिहार में कांग्रेस के अंदर अभी समस्या मुखर नेतृत्व को लेकर है।

 

 जीवनदान की कोशिश 

अब कांग्रेस एक बार फिर खुद को बिहार में पुर्नजीवित करने की कोशिश कर रही है। वह भी ऐसे समय में जब केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी एकछत्र काबिज हो चुकी है और बिहार में भी 2015 में अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर सत्ता में आने की पुरजोर तैयारी कर रही है।  इस वक्त कांग्रेस केंद्र में भी अपनी चमक खो चुकी है और सूबे में भी काफी कमजोर है। हर स्तर पर बिहार में नीतीश और लालू की पिछलग्गू बनना अब कांग्रेस की मजबूरी है। कांग्रेस की राजनीति को बिहार में अब स्वयं के विस्तार के बजाय महागठबंधन में अपने विस्तार को तलाशना होगा।

 

कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती आने वाले समय में महागठबंधन में अधिक से अधिक सीट हासिल करने की होगी। कांग्रेस की सीट विनिंग क्षमता को महागठबंधन के दोनों धड़े भी पैनी निगाहों से मापेंगे। ऐसे में कांग्रेस को महागठबंधन में अपनी साख को मजबूत करने के लिए खुद को मजबूत करना होगा। बहरहाल राहुल गांधी को बिहार बुलाया गया है। 23 नवंबर को वो गांधी मैदान से राजभवन तक समरसता मार्च का नेतृत्व करेंगे। राहुल गांधी एक्टिव हैं और उनके पास इस वक्त बिहार की राजनीतिक जमीन को सींचने का पूरा मौका भी है। लेकिन इसके लिए उन्हें अब अमूल ब्याय की छवि  से बाहर निकल कर बिहार की ग्राउंड रियलिटी को समझना जरूरी है, तभी वे बिहार में कांग्रेस के लिए धारदार नेतृत्व को उभार पाएंगे।

 

By Editor


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