बहुजन-पसमांदा को मुस्लिमनामधारी लिबरल, नास्तिक,माओवादी व कट्टरपंथियों के जाल से बाहर निकालिए
खालिद अनीस अंसारी, असिस्टेंट प्रोफेसर, ग्लोकल युनिवर्सिटी
गुलाम नबी आज़ाद को अचानक एहसास होता है कि ‘हिन्दू’ उम्मीदवारों ने उनको चुनाव प्रचार में बुलाना बंद कर दिया है. हामिद अंसारी फरमाते हैं की बंटवारे के लिए सिर्फ अँगरेज़ और पाकिस्तान ज़िम्मेदार नहीं बल्कि भारत भी उतना ही ज़िम्मेदार है. इस बात को साबित करने के लिए वह सरदार पटेल का सहारा लेते हैं.
[starlist][/starlist] इसी से जुड़ी- पंचायत चुनाव: सशक्त हो के उभरे हैं महिलायें व पसमांदा मुसलमान
बीते दिन जब सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी केस की तारीख़ पर टिप्पणी की तो असदुद्दीन ओवैसी ने बीजेपी को चुनौती दे डाली की अध्यादेश ला कर मंदिर बना कर तो दिखाएं. शेहला रशीद एक मानसिक परेशानियों की शिकार आयरिश गायिका के इस्लाम धर्म अपनाने पर भावविभोर हो कर उसे ‘कौम’ में दाखिल होने की मुबारकबाद दे डालती हैं.
इसी तरह उमर खालिद SIO जैसे इस्लामिक दक्षिणपंथी संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में बेझिझक भाषण देने जाते हैं.
यह भी पढ़ें- पसमांदा मुसलमानों के लिए क्या है मोदी का गेमप्लान
यह अलग-अलग प्रकार के मुसलमानों, सरकारी, बुद्धिजीवी, फेमिनिस्ट, वामपंथी, नास्तिक, माओवादी, कट्टरपंथी, लिबरल, सेक्युलर, कल्चरल लोगों को एक चीज़ जोड़ती है- इनके बयानों और हरकतों पर हिंदुत्ववादियों की अपार ख़ुशी. बार-बार जो यह ‘हिन्दू’ और ‘मुस्लिम’ के बीच लकीर खींचते रहते हैं उस से इनके जातिगत हितों की भी सुरक्षा होती है. बहुजन-पसमांदा को किसी तरह इस दंगल से बाहर निकलना है.
यह भी पढ़ें- किसी ने ‘मुस्लिम’ कहके छला तो कोई ‘मोमिन’ बना के हक मार गया
इसकी पहली शर्त है कि हम अपने आपको बुनियादी तौर पर बहुजन/मूलनिवासी/दलित/आदिवासी मानें और यह समझें की विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से हम अलग-अलग धर्मों में बंट गए हैं. और इन सब धर्मों के सवर्ण ठेकेदारों ने हमें यह घुट्टी पिला दी है कि हमारा धर्म सर्वश्रेष्ट है और हमारी बुनियादी ज़िम्मेदारी अपने-अपने धर्म को बचाना या फैलाना है.
इस से बड़ा बकवास कुछ नहीं हो सकता है. अगर ईश्वर है और सर्वशक्तिमान है तो वह अपना धर्म खुद बचा लेगा. अगर ईश्वर इंसाफ-पसंद है तो वह इंसानों के बीच भेदभाव और गैरबराबरी को पसंद नहीं कर सकता. दुनिया पेचीदा और जटिल है. जैसे एक साइज़ की कमीज सबके शरीर में नहीं आ सकती उस ही तरह कोई एक ही धर्म या उसकी व्याख्या सारे बहुजनों के लिहाज से सबको स्वीकार्य नहीं होती.
धर्म के मामले में लिबरल रहें और गैरबराबरी के मामले में कठोर. बहुजनों के सशक्तिकरण और इंसाफपसंद समाज के लिए सबको मिल कर सतत संघर्ष करने की जरूरत है.