2005 में लालू-नीतीश को एक मंच पर लाने की असफल कोशिश कर चुके शिवानंद तिवारी इसबार खुद दोनों से अलग हैं पर वे दोनों करीब आ रहे हैं ऐसे में शिवानंद तिवारी बिछड़े दोस्तों के साथी बनेंगे? पढ़ें बिछुड़न के साथी
वीरेंद्र यादव, बिहार, ब्यूरो चीफ
बिहार की बदलती राजनीतिक परिस्थिति में पूर्व सांसद शिवानंद तिवारी अपने लिए स्पेस तलाश रहे हैं । पहले लालू यादव और फिर नीतीश कुमार को बाय-बाय कर चुके शिवानंद तिवारी अब अपनी नयी भूमिका खोज रहे हैं ।
भाजपा के राजनीतिक उभार और उसके केंद्रीय भूमिका में आ जाने के बाद लोहिया के विचारों की राजनीति करने का दावा करने वाले खुद अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित हो रहे हैं । उनकी परेशानियां बढ़ गयी हैं। समाजवादी परिवार का राग अलाप रहे लोग वास्तव में अपने घटते आधार को एकजुट करने के लिए मंडलवाद से लेकर आरक्षण की चिंता कर रहे हैं ।
पिछड़ावाद से अघा चुके लालू यादव पहले सवर्ण जाति के लिए आरक्षण की मांग कर रहे थे और नीतीश कुमार ने सवर्ण जाति के आयोग का गठन किया । लेकिन इस लोकसभा चुनाव में सवर्ण जातियों ने दोनों को ठेंगा दिखा दिया तो अब मंडल की याद आ रही है । वैचारिक धरातल पर लालू व नीतीश में अंतर सिर्फ कुर्सी प्राप्त करने के तरीके को लेकर ही है । खैर ।
अब जबकि सबकुछ बदल गया है। नीतीश और लालू दोनों एक-दूसरे के लिए मजबूरी हो गए हैं। उस माहौल में शिवानंद तिवारी की भूमिका अपने आप महत्वपूर्ण हो जाती है । शिवानंद तिवारी दोनों भाइयों को वैचारिक खुराक भी देते रहे हैं ।
नयी संभावना
वह अपनी बात मुखरता से और पूरे तर्क के साथ रखते हैं । शिवानंद ने एक नया खुलासा किया है कि उनकी पहल पर दोनों भाई 2005 में एक साथ आना चाहते थे, लेकिन बाद में लालू यादव मुकर गए और बात नहीं बनी । उनका यह बयान इस बात का संकेत हैं कि दोनों भाइयों से बराबर दूरी पर रहे शिवानंद अब समाजवादी विचारधारा में एक नयी संभावना देख रहे हैं । यह स्वभाविक भी है । लेकिन यह प्रयोग कितना सफल हो पाएगा, इस पर जरूर आशंका बरकरार है ।
मंडल आयोग का असर आज कितना है। इस पर भी सवालिया निशान लग रहा है । लेकिन जातियों की गोलबंदी की संभावना जरूर है । बिहार में जातियों के अंतरसंबंध में व्यापक बदलाव आया है । नीतीश राज में यादव जाति अपने आप को उपेक्षित समझती रही, जबकि कुर्मियों ने अपना राज समझ लिया था । नीतीश के नाम पर भूमिहारों ने भी सत्ता का पूरा दोहन किया। मंडल आयोग से लाभांवित जातियों में भी आपसी विद्वेष बढ़ा है । जबकि हिंदुत्व के नाम पर एक बड़ा तबका भाजपा की ओर शिफ्ट कर गया है
। वैसे माहौल में मंडल राग का कितना प्रभाव होगा, कहना मुश्किल है, लेकिन नये माहौल ने शिवानंद तिवारी की राह आसान कर दी है । 2005 की घटनाक्रम का खुलासा कर उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि हम पहले से ही दोनों की एकता के पक्षघर हैं और अब वह समय आ गया है । यह सच भी है कि नयी परिस्थितियों की उचित व्याख्या करने का साहस और कौशल शिवानंद तिवारी ही रखते हैं । अब देखना दिलचस्प होगा कि शिवानंद तिवारी लालू-नीतीश के भरत मिलाप में कहां अपनी जगह बना पाते हैं।