बिहार राजनीतिक विडंबनाओं और अंतर्विरोधों का प्रदेश है। दोस्ती और दुश्मनी के लिए न कोई कारण होता है और न प्रयोजन। अनुकूल अवसर ही इसकी एक मात्र शर्त है। न पार्टी का बंधन, न जाति का बंधन। राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी ‘विवाद के गीत’ की तरह निरर्थक होते हैं। इसके लिए उदारहण गिनाने की भी जरूरत नहीं है।
वीरेंद्र यादव
राजद और जदयू का तालमेल इस मायने में महत्वपूर्ण है कि दोनों एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और अवसर की संभावना के बीच साथ-साथ होने का राग अलाप रहे हैं। रहीम के दोहा विवाद के बाद यह अविश्वास और खाई ज्यादा बढ़ी है। अब तक नीतीश कुमार होर्डिंग या कहें प्रचार युद्ध में आगे चल रहे थे। लालू यादव का नामोनिशान नहीं था। इसको लेकर सवाल भी उठे। नसीहत भी दी गयी। लेकिन नीतीश का दिल नहीं पसीजा। इससे आहत लालू यादव भी ‘होर्डिंग वार’ में उतर गए हैं। उनकी भी होर्डिंग राजधानी में दिखने लगी है। हालांकि नीतीश के मुकाबले कहीं ठहर नहीं रहे हैं।
लालू की होर्डिंग से नीतीश गायब
सबसे रोचक तथ्य यह है कि लालू यादव की होर्डिंग से नीतीश गायब हैं। नीतीश को ‘फिर से सीएम’ बनाने का कोई संकल्प नहीं दिखता है। उल्टे ‘अपनी सरकार’ के नाम पर राबड़ी देवी को प्रोजेक्ट किया गया है। लालू यादव का नारा है- न जुमलों वाली, न जुल्मी सरकार, गरीबों को चाहिए अपनी सरकार। लालू यादव के संदर्भ में जुमलों वाली तो केंद्र सरकार हो सकती है, लेकिन ‘जुल्मी’ सरकार कौन है। जुल्मी भी ‘भुजंग’ की तरह विभ्रम अर्थी शब्द है। अब सवाल यह उठता है कि लालू व नीतीश के बीच सुर-ताल में कोई सामंजस नहीं दिख रहा है, तो यह तालमेल या गठबंधन पर जनता कितना विश्वास करेगी। इसका उत्तर दोनों भाइयों को देना होगा।
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