भारत में जाति व विरासत के बिना न राजनीति संभव है और न विचारधारा का स्वांग। कांग्रेस प्रधानमंत्रियों की जयंती विरासत के कारण याद की जाती है तो वीपी सिंह की जयंती जाति के कारण मनायी जाती है। पूर्व प्रधानमंत्री आईके गुजराल की राजनीति में न जाति थी, न विरासत। इसलिए जयंती के मौके पर अपनों ने ही भुला दिया। जिस जनता दल के सांसद के रूप में उन्होंने देश के 13वें प्रधानमंत्री के रूप शपथ ली थी, वही दल आज टुकड़ों में बंट कर अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहा है और उसके नेता भविष्य की राह तलाश रहे हैं। इन नेताओं को न गुजराल याद रहे, न उनकी जयंती।
जयंती पर नमन (4 दिसंबर पर विशेष्ा )
चार दिसंबर आईके गुजराल की जयंती तिथि है और इसी तारीख को छह टुकड़ों में बंटे दल के नेता एक होने के स्वांग रच रहे थे। इन्हीं छह में से दो नेता लालू यादव व मुलायम सिंह यादव की आपसी लड़ाई में आईके गुजराल के लिए प्रधानमंत्री पद का रास्ता प्रशस्त हुआ था। आज इन नेताओं ने दो घंटे तक भाजपा से कोप से बचने के रास्ते तलाशते रहे, लेकिन उन्हीं के कुनबे के आईके गुजराल याद नहीं आए। गुजराल की जयंती के बहाने यह चर्चा इसलिए भी आवश्यक हो जाती है कि विचारधारा के स्वांग रचने वाले इन नेताओं की राजनीतिक धारा सत्ता और परिवार की सत्ता आगे नहीं जाती है।
बिहार के ही सांसद थे गुजराल
उत्तर प्रदेश को प्रधानमंत्रियों का राज्य कहने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि आईके गुजराल बिहार से राज्यसभा सदस्य के रूप में देश के प्रधानमंत्री चुने गए थे। बिहार की राजनीतिक जमीन ने न केवल मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज, आचार्य कृपलानी को लोकसभा के लिए भेजा, बल्कि आइके गुजराल को भी 1992 में राज्यसभा के लिए भेजा था। उस समय राज्यसभा सदस्य के रूप में उस राज्य का निवासी होना आवश्यक था, इसलिए उनका आवासीय पता भी पटना का ही था। आईके गुजराल तीन बार राज्यसभा के लिए चुने गए थे और दो बार लोकसभा के लिए चुने गए थे। वह 1964 से 1976 तक पंजाब से राज्यसभा के सदस्य थे। इस दौरान वह केंद्रीय मंत्री भी बने थे। 1989 में पंजाब के जालंधर से जनता दल के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए थे। उन्होंने 1991 में पटना से लोकसभा का चुनाव लड़ा था, लेकिन विवाद के कारण चुनाव रद्द कर दिया गया। इसके बाद 1992 में राज्यसभा के लिए बिहार से जनता दल के उम्मीदवार के निर्वाचित हुए थे। इसी दौरान राजनीतिक परिस्थितियों ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया था। प्रधानमंत्री रहते हुए 1998 में वे जालंधर से दूसरी बार निर्वाचित हुए। इस बार उन्हें निर्दलीय उम्मीदवार के रूप अकालीदल का समर्थन प्राप्त था। हालांकि इस बात के लिए बिहारियों को गर्व होना चाहिए कि बिहार ने भी प्रधानमंत्री दिया है।