यह लेख लाइव मिंट के लिए राजेश चक्रबर्ती ने लिखा है.आप इसमें व्यक्त विचारों से सहमत या असहमत हो सकते हैं पर इन्हें नजरअंदाज़ नहीं कर सकते.
देश के प्रधान मंत्री पद की नीतीश कुमार की दावेदारी स्थापित करने की कोशिश मिली जुली प्रतिक्रियाएं लाती दिख रही हैं. क्या उनके पास भारत के लिए कोई मॉडल है.जो उन्होंने बिहार में किया ? क्या उसे सभी राज्यों में दोहराना मुमकिन है? क्या उनके विकास का मॉडल पूरे देश में सुचारु तरीके से लागू हो सकता है? ये सभी कठिन सवाल हैं. लेकिन इन्हें किसी उत्तर तक पहुंचाने से पहले यह अच्छा होगा कि बिहार में उनके कामकाज के रिकॉर्ड पर एक नजर डाल लें.
जब नीतीश साल 2005 में सत्ता में आए थे, तब बिहार की कुल आबादी का 40 फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहा था. देखा जाए, तो गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की यह तादाद जर्मनी की पूरी आबादी से भी ज्यादा है.राज्य की साक्षरता दर बहुत नीचे थी और प्राथमिक स्कूलों में 90 छात्रों पर एक शिक्षक का अनुपात था. ये दोनों ही मामले देश में सबसे खराब स्थिति थी. सन 2000 में राज्य में हर दस में से सिर्फ एक बच्चे का पूरी तरह से वैक्सीनेशन हुआ था. भारत के 69 सबसे पिछड़े जिलों की सूची में बिहार के 26 जिले शामिल थे. राज्य में सिर्फ 13 प्रतिशत परिवारों को बिजली मिल रही थी.यह आंकड़ा पूरे देश में सबसे कम था. उस वक्त बिहार में केंद्रीय अनुदान आधारित कार्यक्रमों की उपयोग दर भी सबसे कम रही. 1997-2000 के दौरान केंद्रीय योजना सहायता का 20 प्रतिशत इस्तेमाल नहीं हो सका था. कई दूसरी समस्याएं भी थीं. फिरौती के लिए अपहरण एक उद्योग बन गया था यहां तक कि राजधानी पटना में भी महिलाएं अंधेरा फैलते ही घरों में बंद हो जाना पसंद ही मुनासिब समझती थीं. राजनीतिक आकाओं का संरक्षण प्राप्त गिरोहों के दबंग हथियारों से लैस होकर गाड़ियों में घूमते दिखते थे.
अब यह सब बीती बातें हो गयी हैं. इन दिनों पटना एक सामान्य भारतीय शहर लगता है, जहां ट्रैफिक के शोर और भीड़ हैं. हाल ही में बने ईको पार्क में देर शाम को बच्चों, युवा जोड़ों व परिवारों की चहलकदमी दिखती है. पाटलीपुत्र इंडस्ट्रियल एरिया में जमीन के दाम छह लाख प्रति एकड़ से बढ़कर 2.5 करोड़ रुपये प्रति एकड़ हो गया है.
यह बदलाव कैसे आया?
दरअसल, बदलाव के कल-पुर्जे तो नौकरशाही और पुलिस द्वारा निकाले गए मौलिक समाधानों से ही बने. मसलन, बिहार की कानून- व्यवस्था के हाल को लीजिए. इस दिशा में तीन मौलिक कदम उठाए गए- आर्म्स ऐक्ट के साथ-साथ ‘त्वरित सुनवाई’ पर अमल, सशस्त्र बलों के सेवानिवृत्त सैनिकों को ठेके पर नियुक्त कर राज्य पुलिस का सहायक बनाना और दलगत राजनीति से हटकर अपराधी नेताओं (बाहुबलियों) के खिलाफ मुकदमे चलाना. इन कदमों से कई बड़े बदलाव आए. इस बीच बिहार में निर्मित सड़कों की लंबाई दस गुनी बढ़ गई है. तब के राज्य सड़क सचिव आर के सिंह जो फिलहाल केंद्रीय गृह सचिव हैं, ने कुछ ऐसे परिवर्तन किए, जिनसे आगे चलकर बड़ा फर्क पड़ा. ठेके के सरल पंजीकरण नियमों से नए ठेकेदारों की फौज खड़ी हुई, जिससे सड़क निर्माण में ठेकेदारी के जरिये पैसा कमाने का खेल खत्म हुआ. संशोधित बोलियां लगाने से ठेकेदारों को वक्त से पहले परियोजना खत्म करने व उसे जल्द से जल्द पूरा करने की बाध्यता मिली.
यदि सड़कों की हालत साल 2005 में खराब थी, तो स्वास्थ्य सेवाओं का तो अस्तित्व ही नहीं था. बड़ी संख्या में डॉक्टर डय़ूटी से गैर-हाजिर रहते थे, जिसकी वजह से लोगों का मेडिकल सिस्टम से भरोसा उठ गया था।. लेकिन अब मुफ्त दवाएं दी जा रही हैं. नकद प्रोत्साहन की योजना के साथ ही एक बीपीओ द्वारा डॉक्टरों की हाजिरी पर कड़ी नजर रखी जा रही है. नतीजतन, इलाज के लिए आने वाले मरीजों की तादाद तेजी से बढ़ी है. पहले औसतन पचास मरीज प्रति माह आते थे, अब 5,200 हो गए हैं. एक साल में अस्पताल के अंदर प्रसव की तादाद 45,000 थी, जो अब 12 लाख , 50 हजार हो चुकी है. बच्चों में टीकाकरण की दर 67 फीसदी हो गई है, जो राष्ट्रीय औसत से भी बेहतर है. इसी तरह, छात्राओं को मुफ्त साइकिल देने की योजना लोकप्रियता बटोर चुकी है.यह योजना पहले भी एकाध राज्य में शुरू की जा चुकी थी, पर यह बिहार जितनी कामयाब कहीं नहीं हुई. इसके अलावा, स्कूलों में शिक्षकों की उपस्थिति व अस्थायी शिक्षकों की नियुक्ति से भी तस्वीर बदली है. इन सबके चलते स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की तादाद में 85 फीसदी की गिरावट आई है.साल 2005 में हर छह में एक बच्चा स्कूली पढ़ाई बीच में ही छोड़ देता था. शिक्षक-छात्र अनुपात में भी 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.
जाहिर है, जितनी भी समस्याएं थीं, उनके लिए उठाए गए उपरोक्त कदम उचित हल साबित हुए. सवाल यह है कि क्या यह पूरे भारत के लिए भी एक आदर्श मॉडल है, जिसका दूसरे राज्य भी अनुकरण कर सकें? जवाब बेझिझक ‘हां’ में है. नीतीश कुमार ने कैमरों के सामने पुलिसकर्मी का डंडा लेकर चलाने या झाड़ बुहारने का नाटक करके बिहार को नहीं बदला. उन्होंने तो पुरानी नौकरशाही में ही नई जान फूंक दी. यह वही नौकरशाही है, जो नीतीश-राज के पूर्व के लगभग डेढ़ दशक में जजर्र कानून-व्यवस्था को चुपचाप देखते हुए ऊंघती रही. नीतीश कुमार ने एक माहौल बनाया, जहां अधिकारी स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं, जबकि उन पर बेहतर करने और स्थानीय चुनौतियों से निपटने का दबाव है.
हालांकि वरिष्ठ नौकरशाहों को सशक्त बनाने वाले मुख्यमंत्री के दफ्तर पर अफसरशाही का भी आरोप लगता है. लेकिन यही दफ्तर हर पखवाड़े बैठकों के जरिये इन अधिकारियों पर कड़ी नजर रखता है.हर राज्य की अपनी चुनौतियां होती हैं और उनके हल के तरीके अलग अलग होते हैं , लेकिन बढ़िया परिणाम के लिए शासन करने का नजरिया तो एक जैसा ही होता है. नीतीश कुमार ने बिहार में करिश्माई बदलाव लाया है. यह राज्य देश में सबसे अधिक विकास दर के करीब है और धर्मनिरपेक्षता के प्रति इसकी प्रतिबद्धता पर तो प्रश्न ही नहीं उठ सकता.लेकिन राज्य स्तर पर हासिल कामयाबी क्या राष्ट्रीय फलक दोहराई जा सकती है? इस पर चिंतन करने की जरूरत है. वैसे यह नहीं भूलना चाहिए कि यही बातें नरेंद्र मोदी की कामयाबी के लिये भी लागू होती हैं.
अदर्स वॉयस कॉलम के तहत हम अन्य मीडिया में प्रकाशित लेखों को साभार छापते हैं.यह लेख लाईव मिंट में छपा है.