आजाद भारत में 2015 का विधान सभा चनाव संभवत: पहला चुनाव होगा जब बिहार के मुसलमान सर्वथा बेबस मतदाता होंगे.
इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन
उनके पास इस दल या उस दल में से किसी एक को चुनने का विकल्प नहीं होगा. जद यू, कांग्रेस, राजद महागठबंधन को वोट देना उनकी मजबूरी भी होगी और जरूरत भी, क्योंकि जो हालात अभी तक उभर कर सामने आये हैं वह भविष्य की यही दिशा दिखा रहे हैं कि भाजपा गठबंदन और जद यू महागठबंदन ही आमने-सामने होंगे.
आगामी विधान सभा चनाव में लालू प्रसाद मुस्लिम मतादाताओं के वोटों के प्रति, यादव मतदाताओं से भी ज्यादा आश्वस्त रहेंगे. इसी तरह नीतीश कुमार बेफिक्र होकर मुस्लिम वोटों पर इतना भरोसे में रहेंगे जितना वह कुर्मियों के प्रति भी नहीं रहेंगे. गोया कि नीतीश के स्वजातीय मतदाताओं के पास विकल्प होगा कि वह नीतीश को वोट दें या न दें. यादवों के पास भी यह विकल्प होगा कि वह लालू प्रसाद के साथ रहें या न रहें. पर मुसमान?
यह तो हुई मुस्लिम मतदाताओं की हालत. अब इसे नेताओं की आंखों से देखने की कोशिश करते हैं. आगामी विधान सभा चनाव में लालू प्रसाद मुस्लिम मतादाताओं के वोटों के प्रति, यादव मतदाताओं से भी ज्यादा आश्वस्त रहेंगे. इसी तरह नीतीश कुमार बेफिक्र होकर मुस्लिम वोटों पर इतना भरोसे में रहेंगे जितना वह कुर्मियों के प्रति भी नहीं रहेंगे. गोया कि नीतीश के स्वजातीय मतदाताओं के पास विकल्प होगा कि वह नीतीश को वोट दें या न दें. यादवों के पास भी यह विकल्प होगा कि वह लालू प्रसाद के साथ रहें या न रहें. पर मुसमान? वे सिर्फ और सिर्फ जद ये के गठबंदन में ही रहेंगे, कुछ नगण्य अपवाद को छोड़ कर. ये अपवाद वहीं लागू होंगे जहां भाजपा गठबंदन किसी मुस्लिम प्रत्याशी को मैदान में उतारेगा.क्योंकि पिछले तीन-चार महीने में साम्प्रदायिक हिंसा और लव जिहाद जैसे मुद्दों ने मुसलमानों को भारतीय जनता पार्टी के निकट लाने के बजाये दूर ही किये हैं.
व्यापक फलक पर लोकतंत्र के लिए यह खतरनाक स्तिति है. जिस लोक तंत्र में मतदाताओं के लिए अच्छा, बहुत अच्छा और बुरा में किसी एक को चुनने का विकल्प नहीं हो तो इससे बुरी हालत और क्या हो सकती है? लेकिन 2015 का चुनाव मुसलमानों के नजरिये से हमें कुछ ऐसे ही हालात की ओर इशारा करते हैं.
आगामी चुनाव में सामाजिक न्याय के आईने में मुसलमानों की हालत क्या होगी, इस बात का कयास लगाना भी काफी दिलचस्प होगा. सामाजिक न्याय का व्यावहारिक मतलब पिछड़ी जातियों के लिए राजनीतिक न्याय से है. चूंकि मुसलमानों की कुल आबादी का अस्सी प्रतिशत पिछड़ी जातियों का है ऐसे में पिछड़े या पसमांदा मुसलमान भी अपनी शिनाख्त शायद ही बचा पायेंगे, क्योंकि जब वोटिंग का पैटर्न साम्प्रदायिक आदार पर तय होगा तो पसमांदा राजनीति खुद ब खुद कमजोर हो जायेगी नतीजनत नेतृत्व के स्तर पर इसका ज्यादा लाभ संभ्रांत मुस्लिम नेतृत्व को होगा, पसमांदा मुसलमानों को कम. इसकी एक वजह यह भी है कि भले ही राजद-जद यू गठबंदन हिंदू मतदाताओं के बड़े हिस्से को जातीय आदार पर अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करे लेकिन मुसलमानों की जब बात होगी तो उसकी सिर्फ और सिर्फ यह कोशिश होगी मुस्लिम वोट एक मुस्त उनकी झोली में जाये. ऐसे में, अभी तक जिस पैटर्न की राजनीति विकसित हो रही है, उसमें इस बात की संभावना प्रबल है कि आगामी चुनाव पसमांदा मुस्लिम नेतृत्व के उभार के प्रतिकूल ही होगा.
ऐसा इसिलए कि साम्प्रदायिक राजनीति का सबसे बड़ा नुकसान पिछड़ी जातियों को ही होता है. इस तर्क की प्रमाणिकता के लिए हमारे पर एक महत्वपूर्ण उदाहरण 2005 का है. 1990 से लेकर 2005 के पहले तक बिहार के मुसलमान पूरी तरह से लालू प्रसाद के सात रहे. इन पंद्रह सालों में बिहार में पसमांदा मुसलमानों का राजनीतिक नेतृत्व नगण्य रहा. लकिन जैसे ही नतीश कुमार ने 2005 के चुनाव में लालू के मुस्लिम वोट बैंक में सेंद लगाया तो अली अनवर, एजाज अली जैसे पिछड़े नेताओं को आगे आने का मौका मिला. लेकिन अब आने वाले चुनाव में जब नीतीश और लालू एक सात होंगे तो उनके पास ऐसे कोई मजबूरी नहीं होगी कि वे मुस्लिम वोट और मुस्लिम नेतृत्व के एक सेक्शन का लाभ उठायें. आखिर ये दोनों नेता क्यों चाहेंगे कि मुस्लिम वोटों मुस्लिम नेतृत्व को बंटवारा हो?
दैनिक भास्कर, पटना में 13 अक्टूबर को प्रकाशित