राजनीति में हिस्सेदारी को लेकर मुस्लिम समाज में यदा कदा आवाज़ उठती रहती है, लेकिन चुनाव के समय ये आवाज़ साम्प्रदायिकता और जातिवाद के आगे दम तोड़ देती है। भारत के इतिहास में कम ऐसे चुनाव रहे हैं, जिनमे मुसलमानो ने अपने विकास और हिस्सेदारी के मुद्दे पर वोट किया है।
काशिफ यूनुस
शर्मनाक हालात
मुसलमानो को चुनाव के समय अचानक ही धर्मनिरपेक्ष्ता का सिपाही बना दिया जाता है। ऐसा लगता है कि संविधान में निहित तमाम मूल्यों की रक्षा करने की पूरी ज़िम्मेदारी अल्पसंख्यकों पर ही है। कितना शर्मनाक है कि दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र की दूसरी सबसे बड़ी आबादी इक्कीसवीं सदी में भी डर के साये में वोट करती है।
मुसलमानों से नहीं हिंदुओं के कारण है सेक्यूलरिज्म
सबसे बड़ा मिथक कहीं न कहीं कांग्रेस जैसी सेक्यूलर पार्टियों ने मुसलमानो के दिल में डाल रखा है कि मुसलमानो के वोट के कारण ही हिन्दुस्तान एक सेक्यूलर मुल्क है और अगर मुसलमान कांग्रेस और उस जैसी नाम निहाद जिताऊ सेक्यूलर पार्टियों को वोट देकर भाजपा को हराने का काम न करें तो भारत एक हिन्दू राष्ट्र बन जाएगा। मुसलमान इस मिथक से बाहर नहीं निकल पा रहा है। वह अभी तक इतना भी नहीं समझ पाया है कि भारत यहाँ के मुसलमानो के कारण नहीं, बल्कि यहाँ के हिन्दुओं के कारण एक सेक्यूलर देश है।
अगर भारत को धर्मनिरपेक्ष बनाये रखने के लिये भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर लालू और नीतीश गठबंधन की पार्टियों वोट देना इतना ही ज़रूरी होता तो व्यावहारिक तौर पर लालू और नीतीश से ज़्यादा सेक्युलर लेफ्ट पार्टियां बिहार में चुनाओ लड़ने के बजाये भाजपा के विरोध में सिर्फ लालू और नीतीश को जिताने की अपील कर रहे होते। ये मुल्क ना तो लालू -नीतीश के कारण सेक्यूलर है और ना ही भाजपा इसे हिन्दू राष्ट्र बनाने की ताक़त रखती है. जबतक मुसलमान इस बात को नहीं समझेगा, तबतक मुसलमानो की राजनीति हिस्सेदारी और विकास के मुद्दे को मुख्या मुद्दा बना कर नहीं की जा सकेगी।
एक मिथ्या और भी है। जब आरएसएस , भाजपा , मुशावरत , जमीयत इ उलमा जैसी संगठनो का कार्यकर्ता इंग्लैंड की नागरिकता लेता है तो उसे एक बार भी ऐसा नहीं महसूस होता है कि वो किसी सेक्यूलर या हिन्दू राष्ट्र की नागरिकता नहीं ले रहा बल्कि एक ईसाई राष्ट्र की नागरिकता ले रहा है। नेपाल को हिन्दू राष्ट्र से सेक्यूलर राष्ट्र बनाने के लिया वहां के मुसलमानो ने कभी कोई एक भी बैठक नहीं की। वहाँ के हिन्दुओं ने ही नेपाल को एक सेक्यूलर राष्ट्र बनाया। यूरोप और अमरीका में मुस्लिम या दूसरे अल्पसंख्यक लोगों की आबादी भारत से बहुत काम है। फिर भी यूरोप और अमरीका के ज़्यादातर देश सेक्यूलर हैं। ये सभी देश इसलिए सेक्यूलर हैं क्योंकि यहाँ की ईसाई आबादी देश को सेक्यूलर रखना चाहती है। इन सब चीज़ों को अगर गौर से देखा जाये तो ऐसा महसूस होता है के हिन्दू राष्ट्र बनाने और धर्मनिरपेक्षता को बचाये रखने की राजनीति सिर्फ हिन्दू कट्टरवादी और मुस्लिम वोट बैंक बनाने की राजनीति से ज़्यादा और कुछ भी नहीं हैं लेकिन हिन्दुओं और मुसलमानो का एक बड़ा तबक़ा इस राजनीती में आसानी से फंस जाता है इसलिए नरेंद्र मोदी, लालू , नीतीश जैसे नेता इस राजनीति से फायदा उठाते हैं।
सरकार गठन में भेदभाव
अगर हाल में हुए बिहार विधानसभा के चुनाओ और महागठबंधन की बिहार सरकार के परिपेक्ष में देखें तो धर्मनिरपेक्षता की चैम्पियन इस सरकार ने 17% आबादी वाले मुसलमानो का 86% मुस्लिम वोट लिया लेकिन सरकार में सिर्फ 4 मुसलमानो को मंत्री बनाया गया। वहीँ 12% आबादी वाले यादवों ने महागठबंधन को सिर्फ 64 % वोट दिया लेकिन 7 यादवों को काफी महत्पूर्ण मंत्रालय देने का काम किया गया। सरकार के गठन में ही जब इतना भेदभाव है तो आगे क्या होगा ये कहना थोड़ा मुश्किल है।
एक खुली चुनौती नीतीश कुमार के लिए भी है। राजद से दो और जदयू से सिर्फ एक मुसलमान के मंत्री बनने से कहीं न कहीं ये पैग़ाम भी जा रहा है कि मुसलमानो के नेता अभी भी लालू यादव ही हैं नाकि नीतीश कुमार। नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक पारी में ऐसी चूक कैसे कर रहे हैं, ये समझ पाना मुश्किल है। जहाँ इतने सारे मंत्री बने हैं वहां जद यू के कोटे से एक और मुस्लिम मंत्री जोड़ लेना इतना भी मुश्किल तो नहीं है। अपने कोटे से एक कम मुस्लिम मंत्री देकर नीतीश कुमार मुस्लिम वोट पर अपनी दावेदारी को कमज़ोर कर रहे हैं।
उम्मीद जगी
बाक़ी रही बात आम मुसलमानो की तो इसपर कुछ भी कहना अभी जल्दबाज़ी होगी। उर्दू बांग्ला टीचर्स , मदरसा टीचर्स , वक़्फ़ के मसले मुंह खोले खड़े हैं। हालांकि अल्पसंख्यक मंत्रालय में अब्दुल ग़फ़ूर और शिक्षा मंत्रालय में डॉ. अशोक चौधरी जैसे मंत्रियों के आने से लोगों को कुछ अच्छा होने उम्मीद तो है लेकिन धरातल पर क्या उतर पायेगा ये तो आने वाला समये ही बतायेगा। सबसे बड़ी चुनौती अब्दुल ग़फ़ूर के लिये है। अपनी साफ़ सुथरी और अवाम दोस्त छवि को मंत्री पद पर रहते हुए अब्दुल ग़फ़ूर कितना बचा पाएंगे ये उनके लिए एक चुनौती है । वैसे अल्पसंख्यक मंत्री ने पहले दिन ही अल्पसंख्यक छात्रों को मिलने वाले स्कालरशिप की जिला स्तरीय परिस्थिति का जायज़ा लेने का आदेश अपने स्टाफ को देकर काम में गति लाने की कोशिश की है , लेकिन बाबुओं के जाल में फंसी फाइल्स को मंत्री कितनी तेज़ी दे सकेंगे ये अगले कुछ महीनो में पता चल पायेगा।
चुनौतियों को स्वीकार करने की क्षमता रखने वाले नीतीश कुमार ने शराब बंदी का ऐलान करके सिर्फ अपनी ही नहीं बल्कि अब्दुल बारी सिद्दीकी और जलील मस्तान की मुश्किलों को भी काफी बढ़ा दिया है। ऐसे में इन मंत्रियों के कार्यकलाप पर मीडिया और आम जनमानस की और भी कड़ी नज़र हो गयी है। कुछ लोग इसे इस तौर पर देख रहे हैं कि मलाईदार मंत्रालय अपने चहेतों को और चुनौती वाले मंत्रालय मुस्लिम और दलित मंत्रियों को देने का काम किया गया है। हालांकि इस नजरिया को पूरी तरह सही नहीं कहा जा सकता।