भाजपा की प्रदेश इकाई उपचुनाव में अपेक्षित सफलता नहीं मिलने से हताश हो गयी है। इसी हताशा में तीन दिनों तक विभिन्न स्तरों पर समीक्षा की गयी और हार के कारणों पर मंथन हुआ। इस मंथन का एकमात्र फलितार्थ बूथ स्तर पर संगठन की मजबूती पर बल दिया गया। एक नारा भी निकला- बूथ जीतेंगे तो चुनाव जीतेंगे। इसके अलावा प्रदेश नेतृत्व पर नाराजगी और उपेक्षा जैसी बातें उभर कर सामने आयीं।
बिहार ब्यूरो प्रमुख
इन बैठकों में एक बात साफ तौर पर नजर आयी कि पार्टी के सवर्ण नेताओं ने सुशील मोदी के नेतृत्व पर ही सवाल खड़ा किया प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से। इस उपचुनाव की विशेषता यह थी कि वर्षों बाद सुशील मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया था। हालांकि नेता प्रतिपक्ष नंद किशोर यादव जैसे लोग पार्टी में सामूहिक नेतृत्व की बात कहते रहे हैं। पर वास्तविकता यही है कि सुशील मोदी के आसपास ही पार्टी की सत्ता व संगठन घूमता रहता है।
इस उपचुनाव में भाजपा के पक्ष एक बात उभरी है कि नरेंद्र मोदी के कारण भाजपा के साथ जुड़ा अतिपिछड़ा वर्ग अभी भी उसके साथ खड़ा है। जबकि महादलित वोट जीतनराम मांझी के कारण राजद गठबंधन के साथ खड़ा हो गया है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि एनडीए के नाम पर जिन वोटों का समीकरण बना था, उसमें से सिर्फ महादलित वोट ही कटा है, जबकि शेष वोट अभी भाजपा के साथ है। गठबंधन के जिन उम्मीदवारों की जीत से भाजपा हताश है, वह गठबंधन की नहीं, उम्मीदवार की जाति की जीत है। गठबंधन के पक्ष में एक नया समीकरण डीएमवाई का बना है यानी यादव व मुसलमानों के साथ दलित-महादलित वोट की एकता हो गयी है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी का स्वर नीतीश कुमार को लेकर तीखा होने लगा है।
सवर्ण नेता हैं खफा
इसके विपरीत भाजपा के चार में से तीन गैरसवर्ण ही जीते हैं। यही कारण है कि भाजपा का सवर्ण खेमा सुशील मोदी के खिलाफ मोर्चा बंदी शुरू कर दिया है। जब भाजपा नीतीश के साथ थी, तब भी भाजपा दस में से चार सीट ही जीतती थी और आज अकेले होकर भी दस से चार सीट जीत रही है। दरअसल भाजपा का अंतर्विरोध गहराता जा रहा है। जैसे-जैसे भाजपा का आधार गैरसवर्णों में बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे भाजपा के सवर्ण नेता असहज महसूस कर रहे हैं। उन्हें गैरसवर्णों का प्रभाव बरदाश्त नहीं हो रहा है। उन्हें सुशील मोदी की सकारात्मक असर नहीं दिखाई दे रहा है और छोटी-छोटी बातों लेकर सुशील मोदी को घेर रहे हैं। सुमो का दुर्भाग्य है कि उनके पक्ष में कोई पिछड़ा नेता खुलकर बोलने को तैयार नहीं है। या मोदी उनको मौका नहीं दे रहे हैं। अब सुशील मोदी भी भाजपा की नीति व सिद्धांत के बजाय सरकार की खामियां गिना रहे हैं। इसका प्रत्यक्ष लाभ जीतन राम मांझी को मिल रहा है। उनके महादलित वोटर को लगता है कि हमारे नेता को अपदस्थ करने की कोशिश हो रही है।
सुशील मोदी को पार्टी के अंतर्विरोध का समाधान पार्टी के अंदर ही तलाशना होगा। पार्टी के सामाजिक स्वरूप में आ रहे बदलाव की सही संदर्भ में व्याख्या करनी होगी, तभी वह नये वोटरों को आश्वस्त कर पाएंगे और अपनी पकड़ भी मजबूत रख पाएंगे।
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