बिहार में अपनी सत्ता बचाने और आने वाले समय में अपने राजनीतिक पहचान को बरकरार रखने के लिए अब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव अपनी दो दशक की राजनीतिक रंजिश को भूलने को तैयार नजर आ रहे हैं।
दिवाकर कुमार ,भारतीय सूचना सेवा
बिहार की राजनीति के ये दो धुरंधर अपने पुराने गिले शिकवे भुलाने को तैयार हैं। राज्यसभा के उप चुनाव में जदयू के दोनों उम्मीदवार संख्या बल होने के बावजूद लालू प्रसाद की पार्टी राजद के समर्थन से ही जीत हासिल कर सके क्योंकि बागियों ने जिस तरह का माहौल पैदा किया था उससे नीतीश कुमार पूरी तरह घिरते और बेबस नजर आ रहे थे। ऐसे में उन्हें अपनी लाज और राजनीतिक साख बचाने के लिए लालू प्रसाद जैसे धुर विरोधी को फोन कर समर्थन मांगने की जरुरत पड़ गई।
जदयू के दोनों उम्मीदवार गुलाम रसूल बलियावी और पवन कुमार वर्मा किसी तरह राज्य सभा का उप चुनाव जीत तो गए लेकिन नीतीश कुमार की परेशानी यहीं खत्म होती नजर नहीं आ रही है। जदयू के ही बागी विधायकों ने दो निर्दलीय उम्मीदवार साबिर अली और अनिल शर्मा को मैदान में उतारा जिसका राज्य की मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन किया, और अंतिम समय तक इन दोनों ने नीतीश कुमार की धड़कन को बढ़ाए रखी। बिहार में काफी समय बाद राज्य सभा का चुनाव इस तरह कांटे का रहां और अंतिम वक्त तक यह साफ नहीं हो पा रहा था कि आखिर बाजी किसके पाले में जाएगी। पर नीतीश और लालू की पुरानी राजनीतिक दुस्मनी पर कथित नई दोस्ती भारी पड़ गई और नीतीश की लाज और शान दोनों बच गई।
जदयू में बागियों ने जिस तरह से मोर्चा खोल रखा है उससे परेशान नीतीश कुमार ने पहले तो लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद नैतिक आधार पर मुख्यमंत्री का पद छोड़ा और अब लालू प्रसाद जैसे अपने विरोधी नेता की शऱण में जाते नजर आए। नीतीश कुमार ने जिस धर्मनिरपेक्ष कार्ड को लेकर भाजपा से अपना नाता तोड़ा कमोबेश उसी समीकरण ने ही लोकसभा चुनाव में नतीश को हाशिये पर भी ला खड़ा किया।
पहले सत्ता की कुर्सी छोड़नी पड़ी और मजबूरी में जीतन राम मांझी जैसे नेता को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। यहां भी नीतीश ने महादलित कार्ड खेल कर बागियों को कुछ हद तक दबाने की कोशिश भी की लेकिन विरोध का सिलसिला जारी ही रहा और राज्य सभा उपचुनाव में तो ये खुलकर सामने भी आ गया। नीतीश कुमार की मांझी सरकार को मई महीने में भी लालू प्रसाद ने विश्वासमत हासिल करने में समर्थन दिया और फिर राज्य सभा उप चुनाव में भी उनके लिए बेल आउट पैकेज के रुप मे काम आए। ऐसे में भाजपा की दोस्ती से काफी दूर निकल चुके नीतीश कुमार के लिए अब नये समीकरण के अलावा कोई दूसरा रास्ता भी फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने जिस तरह का झटका नीतीश कुमार को दिया है उसके बाद वो अपनी राजनीतिक पहचान बचाने के लिए अब बिहार में नये राजनीतिक समीकरण की तलाश में जुटे हुए हैं ताकि आने वाले विधानसभा चुनाव में वो अपनी पार्टी की नैया पार लगा सकें।
लालू प्रसाद की बातों से इस बाद के भी संकेत मिल रहे हैं कि ये दोस्ताना आने वाले समय में कुछ नया रुप ले सकता है हालाकिं लालू अपनी बेबाकी बाले अंदाज में यही कहते नजर आ रहे कि भविष्य की बात छोड़िये वर्तमान पर नजर टिकाईए। लालू ने जब नीतीश के उम्मीदवार को समर्थन देने की बात कही तो उनका इशारा इस बात पर था कि सामाजिक न्याय एवं धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूत करने और भाजपा के मंसूबों को बनेकाब करने के लिए वो ये सब कर रहे हैं।
मतलब साफ है कि नीतीश कुमार को भी अब भाजपा में सिर्फ सांप्रदायिकता नजर आ रही है औऱ लालू तो पहले से ही इस रास्ते पर खड़े रहे ही हैं। ऐसे मैं भाजपा की लहर और बिहार में उसे रोकने के लिए ये दोनों किस हद जा सकते हैं इसकी झलक तो इन दो पिछली घटनाओं से साफ तौर पर दिखने भी लगा है। जिस लालू के जंगल राज की बात कर नीतीश कुमार बिहार की सत्ता पर पिछले 9 साल से राज कर रहे थे उसी लालू के सहारे नीतीश एक बार फिर बिहार में अपनी खोती जमीन को बचाने की ओर भी आगे बढ़ते दिख रहे हैं। फिलहाल बिहार की राजनीति में राज तो हैं लेकिन नैतिकता और नीति का कुछ कहा नहीं जा सकता।