अल्पसंख्यक आयोग जहां अल्पसंख्यको की शिकायतों पर नजर रखने के लिए बना वहीं वक्फ बोर्ड दान में दी गयी जायदाद की रक्षा के लिए लेकिन इन दोनों संस्थाओं की हालत को सरकारों ने दयनीय बना रखा है.इनकी सारी मिसीनरी नाकाम हैं. ऐसे में बिहार की सरकार को इन्हें दुरुस्त करना चाहिये.
काशिफ युनूस
बहुत सारे मामलों में अल्पसंख्यक आयोग और वक़्फ़ बोर्ड सरकार के सौतेलेपन का शिकार रहे हैं। अल्पसंख्यक आयोग के गठन तो अलग अलग राज्यों में अलग अलग समय पर हुए है परन्तु वक़्फ़ बोर्ड भारत के लगभग सभी राज्यों में आज़ादी के समय से ही मौजूद है।
वक्फ बोर्ड
लगभग 70 साल बीत जाने के बाद भी ज़्यादातर वक़्फ़ बोर्ड की हालत दयनीय है। राज्य की राजधानियों में वक़्फ़ बोर्ड का दफ्तर और उसका अमला तो मौजूद है लेकिन जिला स्तर पर काम करने वाले जिला वक़्फ़ समिति के अध्यक्षों और सचिवों को वक़्फ़ का काम करने के एवज़ में न कोई वेतन है न कोई भत्ता। दिल्ली जैसे राज्यों में तो वक़्फ़ बोर्ड के चेयरमैन को भी वेतन नहीं मिलता। महंगाई के इस दौर में अगर पेट पालने के लिए अध्यक्षों और सचिवों को किसी और काम का सहारा लेना पड़ रहा है तो ऐसी परिस्थिति में वक़्फ़ बोर्ड के काम को लेकर वो कितना समर्पण रख पाएंगे यह कोई भी समझ सकता है।
ऐसी हालत में इन लोगों के लिए धन-बल से लैस भू-माफियाओं से लड़ना कैसे मुमकिन है ?
बहुत सारे राज्यों में तो वक़्फ़ क़ानूनो का भी पालन नहीं हो रहा है। वक़्फ़ क़ानून में बनाये गए वक़्फ़ ट्रिब्यूनल का अस्तित्व तो अभी तक बहुत कम राज्यों में ही आ पाया है। यहाँ तक के केजरीवाल की भ्रष्टाचार मुक्त दिल्ली सरकार में भी अभी तक दिल्ली वक़्फ़ ट्रिब्यूनल का गठन नहीं किया गया है।
आज जब की बिहार विकास दर में अन्य राज्यों के मुकाबले काफी अग्रणी स्थान बनाये हुए है ऐसे में ज़रूरी है के अल्पसंख्यक विकास के मामलों में भी अल्पसंख्यकों की बड़ी आबादी रखने वाले बिहार और बंगाल जैसे राज्य राष्ट्रीय स्तर पर एक मानक बनकर उभरें।
अभी तक वक़्फ़ बोर्डों के पास अपनी सम्पत्तियों की पूर्ण जानकारी भी नहीं मौजूद है। रजिस्टर-२ में ये जायदादें वक़्फ़ जायदादों के रूप में दाखिल ख़ारिज होकर क़ानून की नज़र में पूर्ण रूप से वक़्फ़ जायदादों के रूप में स्थापित भी नहीं हैं।ऐसे में जब भी कोई भू-माफिया इन कमज़ोरियों का फायदा उठाकर किसी वक़्फ़ जायदाद पर क़ब्ज़ा कर लेता है तो अदालत में उस संपत्ति को वक़्फ़ जायदाद साबित करना ही मुश्किल हो जाता है। जिसके कारण बहुत सारे वक़्फ़ मामले वक़्फ़ ट्रिब्यूनल में न चल कर आम न्यायालयों में चल रहे हैं और उनकी रफ़्तार भी अन्य मुक़दमों की तरह ही सुस्त पड़ी हुवी है।
अगर बिहार के शिया और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड निबंधन और दाखिल ख़ारिज का बुनियादी काम ही अगले ५ वर्षों में पूरा कर लें तो यह देश के सभी वक़्फ़ बोर्डों के लिए एक उदाहरण बन सकता है लेकिन मौजूदा परिस्थितियों को देख कर ऐसी कोई उम्मीद नहीं बंधी जा सकती।
अल्पसंख्यक आयोग
अल्पसंख्यक आयोग की तरफ अगर नज़र डालें तो इस आयोग को भी वो सुविधाएं नहीं प्राप्त हैं जो महिला आयोग और मानव अधिकार आयोग जैसे आयोगों को प्राप्त है। बिहार अल्पसंख्यक आयोग के सदस्यों से अगर बात करें तो वो अक्सर इस बात का रोना रोते रहते हैं के उनका वेतन दूसरे आयोगों के सदस्यों से बहुत ही काम है जिसके कारण वे अक्सर ही आर्थिक तंगियों का शिकार रहते हैं।